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आज तुम शब्द न दो

आज तुम शब्द न दो आज तुम शब्द न दो, न दो, कल भी मैं कहूँगा। तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखंडों के गरिष्ठ पुंज चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो। तुम्हारे रंध्र-रंध्र से तुम्हीं को रस देता हुआ फूटकर मैं बहूँगा। तुम्हीं ने दिया यह स्पंद। तुम्हीं ने धमनी में बाँधा है लहू का वेग यह मैं अनुक्षण जानता हूँ। गति जहाँ सब कुछ है, तुम धृति पारमिता, जीवन के सहज छंद तुम्हें पहचानता हूँ माँगो तुम चाहे जो, माँगोगे दूँगा; तुम दोगे जो मैं सहूँगा आज नहीं, कल सही कल नहीं, युग-युग बाद ही : मेरा तो नहीं है यह चाहे वह मेरी असमर्थता से बँधा हो। मेरा भाव यंत्र? एक मढ़िया है सूखी घास-फूस की उसमें छिपेगा नहीं औघड़ तुम्हारा दान- साध्य नहीं मुझसे, किसी से चाहे सधा हो। आज नहीं, कल सही चाहूँ भी तो कब तक छाती में दबाए यह आग मैं रहूँगा? आज तुम शब्द न दो, न दो कल भी मैं कहूँगा।

हिन्दी कहानी कफन

कफ़न प्रेमचंद  झोपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अन्दर बेटे की जवान बीबी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अन्धकार में लय हो गया था। घीसू ने कहा-मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ। माधव चिढक़र बोला-मरना ही तो है जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ? ‘तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफाई!’ ‘तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।’ चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना काम-चोर था कि आध घण्टे काम करता तो घण्टे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मजदूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की कसम थी। जब दो-चार फाके हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढक़र लकडिय़ाँ तोड़ लाता और माधव बाजार से बेच लाता...

रसप्रिया

रसप्रिया   फणीश्वरनाथ रेणु   धूल में पड़े कीमती पत्थर को देख कर जौहरी की आँखों में एक नई झलक झिलमिला गई - अपरूप-रूप! चरवाहा मोहना छौंड़ा को देखते ही पँचकौड़ी मिरदंगिया की मुँह से निकल पड़ा - अपरुप-रुप! ...खेतों, मैदानों, बाग-बगीचों और गाय-बैलों के बीच चरवाहा मोहना की सुंदरता! मिरदंगिया की क्षीण-ज्योति आँखें सजल हो गईं। मोहना ने मुस्करा कर पूछा, 'तुम्हारी उँगली तो रसपिरिया बजाते टेढ़ी हो गई है, है न?' 'ऐ!' - बूढ़े मिरदंगिया ने चौंकते हुए कहा, 'रसपिरिया? ...हाँ ...नहीं। तुमने कैसे ...तुमने कहाँ सुना बे...?' 'बेटा' कहते-कहते रुक गया। ...परमानपुर में उस बार एक ब्राह्मण के लड़के को उसने प्यार से 'बेटा' कह दिया था। सारे गाँव के लड़कों ने उसे घेर कर मारपीट की तैयारी की थी - 'बहरदार होकर ब्राह्मण के बच्चे को बेटा कहेगा? मारो साले बुड्ढे को घेर कर! ...मृदंग फोड़ दो।' मिरदंगिया ने हँस कर कहा था, 'अच्छा, इस बार माफ कर दो सरकार! अब से आप लोगों को बाप ही कहूँगा!' बच्चे खुश हो गये थे। एक दो-ढाई साल के नंगे बालक की ...

‘उसने कहा था

‘ उसने कहा था ’ : पाठ-विश्लेषण चंद्रधर शर्मा ‘ गुलेरी ’ की ‘ उसने कहा था ’ हिंदी की पहली   सर्वोत्तम कहानी मानी जाती है. यह कहानी बहुत ही मार्मिक है .इस कहानी की मूल संवेदना यह है की इस संसार में कुछ ऐसे महान निस्वार्थ व्यक्ति होते हैं जो ‘ किसी के कहे ’ को पूरा करने के लिए अपने प्राणों का भी बलिदान कर देते हैं. इस कहानी का पात्र लहना सिंह ऐसा ही व्यक्ति है. लहना सिंह ने अपने प्राण देकर बोधा सिंह और हजारा सिंह की प्राण – रक्षा की. ऐसा लहना सिंह ने सूबेदारनी के मात्र ‘ उसने कहा था ’ वाक्य को ध्यान में रखकर प्राणोत्सर्ग किया .जो ‘ रघुकुल रीति सदा चली आई , प्राण जाये पर वचन न जाई ’ को चरितार्थ करता है . ‘ उसने कहा था ’ कहानी का भी शीर्षक भी है जो शीर्षक को सार्थकता प्रदान करता है. जब हम लहना सिंह के व्यक्तित्व को मनोविज्ञान की तराजू पर तौलते हैं तो उसके भावों की गहराई में आत्मत्याग की तत्परता में उसके अचेतन की – ‘ उसने कहा था ’ – आवाज सुनाई पड़ती है. यह आवाज उसके जीवन का सत्य बन जाती है. लहना सिंह के माध्यम से लेखक ने निश्छल प्रेम , प्राण पालक , त्याग भावना और वीरता का सन्देश देत...