विषय प्रवेश
- स्वातंत्र्योत्तर कहानी में आए बदलावों को समझ सकेंगे।
- साठ के बाद की कहानी में यथार्थ के स्तर पर आए परिवर्तनों की पहचान कर सकेंगे।
- पिता कहानी की समकालीन एवं पूर्ववर्ती कहानियों से तुलना कर सकेंगे।
- इस कहानी की तत्कालीन ही नहीं बल्कि समकालीन संदर्भ-सापेक्षता की पहचान कर सकेंगे।
- पिता-पुत्र अथवा पारिवारिक संबंधों की यथार्थ के नए स्तरों पर पहचान कर सकेंगे।
- परंपरागत और आधुनिक होते जाने के बीच उभरे द्वंद्व और इस द्वंद्व में बने एक नए तरह के संबंधों की व्याख्या कर सकेंगे।
- आजादी के बाद उभरे नए शिक्षित मध्यवर्ग के उभार और इस शिक्षित मध्यवर्ग को बनाने या तैयार करने वाली पीढ़ी के बीच उपजे द्वंद्वात्मक संबंध को पहचान सकेंगे।
- साथ ही जान सकेंगे कि संबंधों में आई इस द्वंद्वात्मकता का कारण क्या है?
ज्ञानरंजन : व्यक्तित्व/कृतित्व

पूरा नाम ज्ञानरंजन
जन्म 21 नवंबर 1931
जन्म भूमि अकोला, (महाराष्ट्र)
कर्म भूमि ’पहल’ नामक प्रसिद्ध पत्रिका के सम्पादक।
कर्म-क्षेत्र यशस्वी कथाकार
मुख्य रचनाएँ फ़ेंस के इधर और उधर, क्षणजीवी, सपना नहीं (सभी कहानी-संग्रह) रूसी भाषा में और अंग्रेज़ी में कहानियों के अनुवाद।
विषय सगुण भक्ति
भाषा हिन्दी
पुरस्कार-उपाधि राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मानसहित
पाठ-विश्लेषण
ज्ञानरंजन अपनी कहानी ‘पिता’ में पिता-पुत्र संबंधों के यथार्थ को अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की तुलना में काफी अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं। पुत्र उमस भरी गर्म रात में घर लौटा, उसने आध पल को बिस्तर का अंदाजा लेने के लिए बिजली जलाई। बिस्तर फर्श पर ही पड़े थे। पत्नी ने सिर्फ इतना कहा कि ‘आ गये’ और बच्चे की तरफ करवट लेकर चुप हो गयी।
वातावरण बहुत गर्म है। गर्मी की वजह से कपड़े पसीने में पूरी तरह से भीग चुके हैं। घर में सभी लोग सो चुके है घर के भीतर सिर्फ वही जागा है। घर में अगर पुत्र जागा है तो बाहर पिता भी जागे हुए हैं। रोती बिल्ली को देख पिता सचेत हो गये और उन्होंने डंडे की आवाज़ से बिल्ली को भगा दिया। जब वह घूम फिर कर लौट रहा था तब भी उसने कनखी से पिता को गंजी से अपनी पीठ खुजाते देखा था। लेकिन वह पिता से बचकर घर में घुस गया। पहले उसे लगा कि पिता को गर्मी की वजह से शायद नींद नहीं आ रही लेकिन फिर एकाएक उसका मन रोष से भर गया क्योंकि घर के सभी लोग पिता से पंखे के नीचे सोने के लिये कहा करते हैं लेकिन पिता हैं कि सुनते ही नहीं।
कुछ देर वह अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहा फिर कुछ देर बाद उत्सुकतावश उठा और उसने खिड़की से बाहर देखा। पिता बेचैन थे सड़क की बत्ती बिल्कुल उनकी छाती पर पड़ रही थी वे बार-बार करवट बदल रहे थे। फिर कुछ देर बाद उठकर पंखा झलने लगे। इसके बाद पिता उठकर चौकीदारों की तरह घर के चारों ओर घूमने लगते हैं। पुत्र को यह सब अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ़ लगता है। उसे लगता है कि इससे पिता मोहल्ले में हमारे सम्मान को ठेस पहुँचा रहे हैं। वह कमरे की दीवार से पीठ टिकाकर तनाव में सोचने लगता है। बिजली का मीटर तेज चल रहा है सब लोग आराम से पंखे के नीचे सो रहे हैं लेकिन पिता की रात कष्ट में ही बीत रही है। पिता जीवन की अनिवार्य सुविधाओं से भी चिढ़ते है क्यों? पिता चौक से आने के लिये रिक्शे वाले से चार आने मांगने पर तीन आने और तीन आने माँगने पर दो आने लेने के लिये काफी चिरौरी करते हैं। घर में वॉश वेसिन है पर वे बाहर जाकर बगियावाले नल पर ही कुल्ला-दातुन करते हैं। गुसलखाने में खूबसूरत शॉवर होने के बावजूद पिता को आँगन में धोती को लंगोट की तरह लपेटकर तेल चुपड़े बदन पर बाल्टी भर-भर पानी डालना ही भाता है। इसलिये वह पिता पर ही झल्लाने लगता है।
लड़कों द्वारा बाजार से लाई गयी बिस्किटें, मेहँगे फल पिता कुछ भी नहीं लेते। कभी लेते भी हैं तो बहुत नाक-भौं सिकोड़कर। बाहर पिता ने लड़ते चिचियाते कुत्तों को भगाया। वह पिता के व्यवहार से फिर दुखी हो गया। उसने कितनी बार पिता से कहा कि मुहल्ले में हम लोगो का सम्मान है आप भीतर सोया कीजिये। अच्छे कपड़े पहना कीजिये और बाहर पहरा मत दिया कीजिए ये सब बहुत भद्दा लगता है पर पिता इन सब बातों पर कोई ध्यान नहीं देते। कितना भी बढ़िया कपड़ा लाकर दो और कहो कि इसे किसी अच्छे दर्जी से सिलवा लो तो भी वे मुहल्ले के ही किसी भी सामान्य से दर्जी से कमीज कुरता सिलवा लेते हैं। इस पर पिता के अपने तर्क हैं। घर के लोग पिता के इस व्यवहार को देखकर हर बार प्रण लेते है कि वे अब पिता को उनके हाल पर छो़ड़ देंगे लेकिन कुछ समय बाद फिर से पिता के लिये सबका मन उमड़ने लगता है।
वह इन सब बातों को भुलाना चाहता था उसने सोने की इच्छा की पर खुद को असहाय पाया। फिर उसने अपनी पत्नी देवा के बारे में सोचने की, उसके शरीर को स्पर्श करने की इच्छा मन में की ताकि उसका ध्यान पिता से हट सके पर देवा के कुल्हे को स्पर्श कर भी वह अपने भीतर उत्तेजना पैदा नहीं कर सका। वह पिता के लिये द्वंद्व की स्थिति से भर जाता है। एक स्तर पर उसे पिता बड़े हठी दंभी और अहंकारी लगते हैं लेकिन दूसरे ही क्षण उसे लगता है कि पिता लगातार विजयी है। कठोर है तो क्या,उन्होंने पुत्रों के सामने अपने को कभी पसारा नहीं। वह इन सब बातों को सोचकर गौरवांवित और लज्जित दोनों विरोधाभासी अवस्थाओं को महसूस करता है। एक बार उसके मन में आया की वह पिता को आग्रहपूर्वक भीतर आकर पंखे में सोने के लिये कहे लेकिन वह ऐसा न कर सका। पूरी रात जागने के बाद अलसुबह उसकी नींद काफूर हो चुकी थी उसने पिता को देखा। पिता सो नही गये है अथवा कुछ सोकर पुनः जगे हुए है। पता नहीं। अभी ही उन्होंने हे राम कहकर जम्हाई ली है। पिता उठे उन्होंने अपना बिस्तर गोल करके एक सिरहाने पर रखा और खाट की बाध को पानी से तर किया और पंखा झलने लगे। तड़का होने में अभी देर थी। वह खिड़की से हटकर बिस्तर पर आया। अंदर हवा वैसी ही लू की तरह गर्म है। दूसरे कमरे स्तब्ध हैं पता नहीं बाहर भी उमस और बेचैनी होगी। वह जागते हुए सोचने लगा, अब पिता निश्चित रूप से सो गये हैं शायद।
‘पिता’ ज्ञानरंजन की महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है। पिता के अलावा ज्ञानरंजन की पहचान ‘संबंध’, ‘फेंस के इधर-उधर’ और ‘घंटा’ कहानियों से भी बनी है। और यह पहचान इस तरह की है कि लगभग तीस वर्षों तक कहानियाँ न लिखने के बावजूद भी साहित्य समाज और उनका पाठक-वर्ग इन्हें अपने जेहन से नहीं निकाल सका है। ऐसा क्या है ज्ञानरंजन में जो उन्हें अपने समकालीनों और पूर्ववर्ती कहानीकारों से अलग करता है।
ज्ञानरंजन का दौर दरअसल आज़ादी के तुरंत बाद वाला (मोहभंग, विभाजनग्रस्तता आदि) दौर न होकर उससे उबरने और संबंधों में आई खटास को दूर करने और उन्हें मजबूत करने का दौर था। पर इस दौर की विडंबना यह थी कि संबंध बनाए रखने के चक्कर में हाथ से छूटते जा रहे थे जैसे रेत मुट्ठी बंद करने पर हाथ से तेजी से छूटती है। ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियों की पृष्ठभूमि इन्हीं संबंधों खासकर पारिवारिक संबंधों को बनाया है।
उनकी कहानियों के समीक्षकों को यह मुगालता हो सकता है कि वे पारिवारिक संबंधों में आई दरार और दो पीढियों के बीच बढती दूरियों को अपनी कहानियों का आधार बनाते है जहाँ पुरानी पीढ़ी बेहद जिद्दी, और रूढिवादी है। पर उनकी कहानी पिता इसे तुरंत खारिज कर देती है और इसका सही विश्लेषण इसके पाठ में ही निहित दिखाते हुए संयुक्त परिवार के विघटन और दो पीढियों में आई भावनात्मक दूरी जैसे जुमलो को अपनी कहानियों से कोसो दूर रख छोड़ती है। इसलिये भी ज्ञानरंजन की कहानियों का पाठ बेहद सावधानी से किया जाना चाहिए असावधानी की अवस्था में उपरोक्त मुगालते फिर फिर पैदा होंगे। ज्ञानरंजन की पहचान सिर्फ कहानियों ने ही नहीं बनाई। उन्होंने अपनी पहचान पहल के प्रगतिशील और कर्मठ संपादक के रूप में भी अर्जित की है।
पिता कहानी उमस भरी गर्म रात अथवा एक प्रहर में एक पिता की मनःस्थिति को पु्त्र की नज़र से अथवा वाचक के रूप में बयां करती है। एक पुत्र जो इस उमस भरी रात में घर लौटा है इस डर से कि कहीं किसी की नींद न उचट जाए सिर्फ आध पल को अपने बिस्तर का अंदाज लेने के लिए बिजली जलाता है। बिस्तर फर्श पर ही पड़े हैं। पत्नी सोते-सोते सिर्फ इतना कहती है कि ‘आ गये’ और बच्चे की तरफ करवट लेकर चुप हो जाती है। यह कहानी का सबसे शुरुआती हिस्सा है जो कहानी की पृष्ठभूमि का निर्माता भी है। कथाकार यहाँ घर में भरी गर्म उमस का संकेत देने के साथ परिवार के लोगों के दिल में भरी उमस का संकेत भी देता है। यहाँ से कहानी शुरू जरूर होती है पर इसे आधार इसके बिल्कुल बाद वाले हिस्से में मिलता है। यहाँ कहानी का उद्देश्य अपनी या अपनी पत्नी की स्थिति दर्शाना नहीं बल्कि सिर्फ वातावरण की निर्मिति करना है। हालाँकि सातवें दशक की कथा या साठोत्तरी कहानी में पूर्वनिर्धारित कथा तत्वों का लगभग ह्रास हो चुका है लेकिन तब भी हम कहेंगे कि यहाँ कथातत्व ह्रास या खत्म होने की अपेक्षा परिवर्तित हो गये हैं अर्थात अपने आधारों या कहने के ढंग में परिवर्तन कर लेते हैं। जिसकी शुरुआत स्वतंत्रता के साथ ही हिंदी कहानी में हो जाती है। जिसके प्रयोग जैनेंद्र और अज्ञेय ने पहले ही कर दिये थे। यही कारण है कि यहाँ हमें कहानी का उद्देश्य, देशकाल और वातावरण या फिर चरित्र-चित्रण प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिखता। दरअसल इस दौर के कथाकार का लक्ष्य कहानी कहने से ज्यादा अपनी स्थिति का समकालीन संदर्भों में उद्घाटन करना रहा है। यही कारण है कि साठोत्तरी कहानी में सैल्फ(मैं) कहानी कहता है। जैसाकि ज्ञानरंजन की अधिकतर कहानियों में हमें दिखता है।
ज्ञानरंजन की यह विशेषता है कि वह अपनी कहानियों में स्वयं को सामाजिक स्थितियों के भीतर और समकालीन संदर्भों में स्थापित करने में कामयाब रहें हैं। पिता कहानी को कई आलोचकों ने पिता-विरोधी कहानी के रूप में भी देखा है जो इस कहानी की एक गलत व्याख्या है। यह कहानी न तो कहीं पिता विरोधी है और न हीं इसमें किसी खास पीढ़ी को निशाना बनाया गया है। हाँ, यह कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की अपेक्षा पिता-पुत्र संबंधों का थोड़ा जुदा विश्लेषण जरूर करती है। पिता और पुत्र के मध्य दो पीढियों का फासला होने के बावजूद यह कहानी पिता और पुत्र के संबंधों की स्वातंत्र्योत्तर समझ विकसित करने और उनमे उपजने वाले भावी द्वंद्व की शुरुआती अवस्था पर बात करती है।
यहाँ पिता और पुत्र के मध्य एक प्रेममयी और भावनात्मक दूरी है लेकिन इसके बावजूद दोनों एक दूसरे की चिंता करते हैं। इसलिये यह कहना कि यहाँ बूढों की दयनीय स्थिति दर्शायी गयी है(जैसाकि कई विश्लेषकों ने कहा है) सरासर गलत होगा। पिता और पुत्र पास रहने पर भी साथ नहीं रह पाते। लेकिन यह सिर्फ इस कहानी की ही नहीं उस पूरे दौर और यहाँ तक कि आज के दौर की भी विडंबना है। दोनों के अपने आग्रह हैं पर कौन दुराग्रह से ग्रस्त है यह कहानीकार कहीं नहीं बताता सिर्फ पिता के संस्कारों और उनकी कार्यविधियों का ब्योरा वह हमारे सामने रखता है। यह बात सही है कि सरसरी और ऊपरी नजर से देखने पर इस कहानी में पिता की जिद और पुत्र की इच्छाओं की कद्र न करने के कारण दोषी पिता ही ठहरते हैं। पर यह न तो कहानी का लक्ष्य है और न ही कहानीकार का। इसलिये हमने शुरू में ही कहा यह कहानी अपने पाठ के दौरान काफी सावधानी बरतने की मांग करती है।
साठोत्तरी कहानी और ज्ञानरंजन :
स्वतंत्रता के बाद उपजी नयी कहानी से इतर साठोत्तरी कहानी पद का प्रयोग सन् साठ के बाद लिखी कहानियों के लिये किया जाता है। इस कहानी की भावभूमि इसकी पूर्ववर्ती कहानियों अथवा नयी कहानी से बहुत मायनों में जुदा है। हिंदी कथा साहित्य का अध्ययन करने के दौरान आप देखेंगे कि संपूर्ण कथा साहित्य खासकर स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य को कई आंदोलनों में बाँटा गया है। नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी जिसमें अकहानी, सचेतन कहानी, समानांतर कहानी और समकालीन कहानी में इन कथा आंदोलनों को बाँटा गया है। साठोत्तरी या सातवें दशक के कथाकारों में ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, महेंद्र भल्ला, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, राजकमल चौधरी आदि के नाम प्रमुख हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि इस दौर की कहानियाँ और कथाकार किसी खास विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं।
जनवादी और प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध ये कथाकार कहानी की मूल थीम प्रगतिशील रखने के बावजूद भी प्रयोगों से पीछे नहीं हटे है। काशीनाथ सिंह, राजकमल चौधरी, रवींद्र कालिया, महेंद्र भल्ला, और स्वयं ज्ञानरंजन ने भी अपनी कहानियों में प्रयोग किये हैं। लेकिन विचार के स्तर पर साठोत्तरी कहानी में प्रगतिशील तत्वों को साधने में ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह की अहम भूमिका है। अगर प्रगतिशीलता को मार्क्सवाद का साहित्यिक रूपांतरण मानने की भूल न की जाए तो इसमे कोई संदेह नहीं कि साहित्य की मूल शक्ति प्रगतिशील रही है। मानवतावाद का स्वर इसका सबसे जरूरी और अनिवार्य स्वर रहा है। लेकिन लेखक पर अपनी प्रतिबद्धता और विचारधारा का ही दबाव नहीं होता बल्कि वह अपने लेखन में अपने समय और समकालीन संदर्भवत्ता को भी साधता है। साठोत्तरी कहानी इस मायने में खास है कि इसके लेखक अपनी विचारधारा और समकालीनता को एक साथ साधते हुए अपने प्रयोगों और रचनात्मकता को बनाए रखते हैं।
नयी कहानी का अवसान और साठोत्तरी कहानी का उदयकाल एक ही है यह वह समय है जब साठोत्तरी कहानी अपने नये विचारों नयी रचनात्मकता के द्वारा सातवें दशक पर दस्तक दे रही थी। जिसका संकेत नामवर सिंह ने अपने कॉलम एक नयी शुरुआत के जरिये दे दिया था। एक और शुरुआत की आखिरी किश्त लिखते हुए नामवर सिंह ने साठोत्तरी कहानी की इस ध्वनि को पहचाना था और इसका स्वागत किया था सन ६५-६६ में कलकत्ता में होने वाले कथाकुंभ में नये कथाकारों की ही नहीं बल्कि कथा समीक्षकों की भी झण्डाबरदारी बदल गयी थी, और यहीं पर कहानी समीक्षा का झण्डा नामवर सिंह की अपेक्षा देवीशंकर अवस्थी के हाथो में थमा दिया गया था।
साठोत्तरी कहानीकारों के रूप में काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया लगातार चर्चित हो रहे थे और मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा सरीखे स्थापित कथाकारों के साथ यह पीढी अपनी कहानियाँ सामने ला रहीं थीं। यह पीढ़ी साहित्य समाज में अपने एक अलग तेवर और शिल्प के साथ उतर रही थी। नयी कहानी की तुलना में साठोत्तरी कहानी में संबंधों का एक नया यथार्थ देखने को मिला था। यह पारिवारिक और रागात्मक संबंध एक और जिंदगी, मिस पाल, एक दिन का मेहमान, रोज़(गैंग्रीन), वापसी, चीफ की दावत, छोटे-छोटे ताजमहल आदि के चरित्रों के संबंधों से भिन्न थे। ज्ञानरंजन की पिता कहानी इसका प्रमाण है। इसलिए साठोत्तरी कहानी का विश्लेषण आप नयी कहानी के प्रतिमानों को आधार बनाकर नहीं कर सकते। नयी कहानी में पीढ़ियों के मध्य जिस तरह का द्वंद्व दिखाई देता है उस तरह का द्वंद्व साठोत्तरी कहानी के चरित्रों में नहीं है बल्कि यहाँ चरित्रों की भाषा और शिल्प ही नहीं बल्कि उनका मिजाज़ भी बदला है। अगर ऐसा न होता तो साठोत्तरी कहानी स्वयं को स्थापित नहीं कर पाती बल्कि नयी कहानी में ही विलीन होकर रह जाती लेकिन यदि साठोत्तरी कहानी स्वयं को नयी कहानी से अलगा सकी और एक नये आंदोलन का रूप ले सकी तो इसकी वैचारिकता और इसके तेवर की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही।
सातवें दशक का कथाकार संबंधों में होने वाले परिवर्तन का भोक्ता कथाकार है। सातवें दशक की शुरुआत जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में होती है उसमे साठोत्तरी कहानी संरचना के पूर्ववर्ती ढ़ाँचे को बनाए नहीं रख सकती थी। परिणामस्वरूप पूर्ववर्ती ढ़ाँचा टूट गया और कहानी की संरचना बदल गयी। इस दौर का कथाकार नये जीवन यथार्थ के संदर्भ में बदली हुई स्थितियों-परिस्थितियों का अध्ययन करता है और पाता है कि बदली हुई परिस्थितियाँ बने बनाये पारिवारिक संगठन और संयुक्त परिवार के गठन को चुनौती दे रहीं हैं। लेकिन इस दौर का कथाकार इस परिस्थिति को स्वीकार करने की अपेक्षा उससे लोहा लेता है। वह टूटता है हारता है पर रचनात्मक स्तर पर वह अपने लेखन को इसके अनुसार नहीं मोड़ता यही साठोत्तरी कहानी की शक्ति है। अगर ऐसा होता तो ज्ञानरंजन पिता काशीनाथ सिंह अपना रास्ता लो बाबा और जंगल जातकम जैसी कहानियाँ इस दौर में नहीं लिख पाते। यह प्रमाण है कि वे अपनी समकालीन परिस्थियों को अपने साहित्य में अभिव्यक्ति देने के लिए अपना शिल्प और अपनी भाषा चुनते हैं। साठोत्तरी कहानी में मूल्यों के प्रति विद्रोह के मौजूद होने के बावजूद यह अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की भाँति उसका पूरी तरह निषेध नहीं करती।
ज्ञानरंजन की कहानियों की यह विशेषता है कि वह अपने निजी जीवन में भोगी स्थितियों को सामाजिक धरातल तक लाने में सक्षम रहे हैं। पारिवारिक संबंधों के बदले स्वरूप को दिखाते हुए ज्ञानरंजन की कहानी पिता पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी में आए मानसिकता के बदलाव का चित्रण करती है लेकिन इनके संबंध में किसी तरह का निष्कर्ष देने की कोशिश नहीं करती। पिता की पीढ़ी अगर अपनी समकालीन स्थितियों से नहीं जुड़ पा रही तो पुत्र की पीढ़ी भी अपने पिता की पीढ़ी को समझने की जद्दोजहद नहीं करती है। इस स्तर पर आकर ज्ञानरंजन थोड़े कमजोर पड़ जाते हैं संभवत उनका युवा पूर्वाग्रह इसके आड़े आ जाता है क्योंकि वे स्वयं को पुत्र वाली पीढ़ी से संबद्ध करते हैं। ज्ञानरंजन की पिता कहानी की यह खासियत है कि दो पीढ़ियों के मध्य की मार्मिक टूटन को दिखाने के बावजूद यह दोनों पीढ़ियों के मध्य के भावनात्मक लगाव को किसी रूप में कम नहीं होने देती।
व्याख्या अथवा विश्लेषण की दृष्टि से इस कहानी के दो पाठ हो सकते हैं। पहला पाठ इसे संयुक्त परिवार के विघटन, दो पीढियों के संघर्ष, पिता-विऱोधी और रूढिगत मानसिकता और आधुनिकता के द्वंद्व के रूप में विश्लेषित करता है तो इसी कहानी का दूसरा पाठ विश्लेषण कहानी के मर्म तक पहुँचते हुए इस कहानी में पारिवारिक संबंधों को नए रूप में देखते हुए यथार्थ के बदलते तेवर और मिजाज को ध्यान में रखते हुए पिता और पुत्र के संबंधों में आई दूरी की संदर्भ सापेक्ष और समकालीन व्याख्या करता है।
इस पाठ के अनुसार पिता रूढ़ियों से चिपके होने के कारण आधुनिक पीढी को नहीं समझ पाते। वे अपनी जिद के आगे अपने बच्चों की इच्छाओं और मान-सम्मान का भी खयाल नहीं करते। इस विश्लेषण के अनुसार चूँकि संयुक्त परिवार का विघटन स्वतंत्रता के पश्चात तेजी से हुआ इसलिये बूढों की समस्याएँ खासकर अकेले होते जाने और असहाय होते जाने की पीड़ा अचानक से बढ़ गयी। बच्चों अथवा युवाओं के गाँव से बाहर शहर जाने पर ये लोग गाँव में ही रह जाते हैं। पिता में कहानीकार का उद्देश्य इसी समस्या को रेखांकित करने के साथ-साथ पुरानी पीढी की रूढिवादिता को उद्घाटित करना भी रहा है। यह पाठ इस कहानी को पिता विरोधी करार देता है।
पर असल बात तो यह है जो इस पाठ की अपनी समस्या है। जो समस्या ऊपर बताई गयी है वैसी समस्या ज्ञानरंजन की इस कहानी में नहीं है। यहां पिता परिवार के बड़े और सम्मानित सदस्य हैं। चूँकि परिवार साथ में ही रहता है। तो अकेलपन की पीड़ा भी नहीं है। यहाँ तक परिवार के सभी सदस्य पिता के लिये सुविधाएँ जुटाने का प्रयत्न करते हैं। उनकी एक ही चाह है कि पिता अच्छा खाएँ, अच्छा पहने और अच्छे से रहें लेकिन पिता हैं कि उन्हें इन सुविधाओं में कोई रस नहीं मिलता। वे अपनी ही तरह से रहते हैं। उपरोक्त पाठ इस द्वंद्व को उद्घाटित करने की अपेक्षा कहानी को पिता विरोधी क्रांतिकारी दर्शन के रूप में व्याख्यायित करता है। स्वयं ज्ञानरंजन इस तरह की व्याख्या से व्यथित हैं वे अपनी कहानियों के प्रतिनिधि संकलन की भूमिका में इस व्यथा को बयां करते हैं। वे लिखते हैं कि “मेरी पिता कहानी की तारीफ में उसे पिता विरोधी दर्शन के साथ जोड़ने की क्रांतिकारी आलोचना सामने आई। मैं इस तरीके को कभी पसंद नहीं कर सका, क्योंकि मेरी कहानियों में निजी मामले काफी हद तक झूठ भी थे – हाँ, वे सार्वजनिक सच्चाइयों के साथ स्वाभाविक रूप से जोड़े जा सकते थे।“ (प्रतिनिधि कहानियाँ, पृष्ठ 6)
कहानी में द्वंद्व की सृष्टि पुत्र द्वारा पिता के लिए सुविधाएँ जुटाने के प्रयासों के प्रति पिता की उदासीनता और अरुचि से होती है और यहीं आकर कहानी की अंतर्वस्तु खुलने लगती है। हालाँकि यह कहानी की संरचना का मूल हिस्सा होने के बावजूद भी कहानी की मूल संवेदना नहीं है। मूल संवेदना कहानी में प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आती उसे कुरेदना पड़ता है। पिता गर्मी में बाहर सो नहीं पा रहे और पिता की बेचैनी पुत्र की बेचैनी बन गयी है। यहाँ गर्मी इस बेचैनी का प्रतीक है जो हर जगह विद्यमान है घर में, बाहर, आंगन में, हर जगह यह बेचैनी कहानी के किरदारों के साथ आपको अपनी क्रिया करती दिखेगी। कहानी के संवादों में यह एक चरित्र की तरह उभरती है। हिंदी कथालोचना की यह बहुत बड़ी सीमा है कि ज्ञानरंजन की इस कहानी में गर्मी के इस प्रतीक को वह अब तक पकड़ नहीं सकी है। यह हिस्सा कहानी का मुख्य बंध है जिसे खोले बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं और यही पाठ विश्लेषण – एक की भी समस्या है।
पिता बाहर नहीं सो पा रहे और भीतर पुत्र सबके सोने के बावजूद जागा हुआ है और पिता की क्रियाओं पर उसका ध्यान केंद्रित है वे रात में मौहल्ले की चौकीदारी कर रहे हैं रोती बिल्ली को भगा रहे हैं। खाट की बाध को गीला कर रहे हैं। पुत्र की बेचैनी इतनी अधिक है कि पत्नी के कूल्हे पर हाथ रखने से भी उसमें उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती, वह पिता के लिेये चिंतित हैं।
पिता और पुत्र की पीढ़ी में विचार और व्यवहार का अंतर होने के बावजूद भी भावात्मक राग संबंधों की सहसंबद्धता साफ परिलक्षित होती है और यह एक तरफा नहीं हैं। कहानीकार उस संवेदना को कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहता है और यही कहानी का लक्ष्य भी है।
पुत्र का युवा मानस अपनी प्रतिष्ठा के लिये लड़ रहा है तो पिता अपने संस्कारों और परंपरा को छोड़ना नहीं चाहते जिससे दोनों के मध्य रागात्मक और भावुक संबंध होने के बावजूद भी एक दूरी बनी हुई है। पुत्र पिता के बाहर गर्मी में रहने से चिंतित है, वह लज्जित हैं वह और उसका परिवार पंखे में सोए और पिता उमस भरी गर्मी में बाहर खाट पर पानी डालते पड़े रहे पर वह कुछ कर नहीं सकता, वह मन ही मन दुखी है। परिवार पिता को सारी सुख सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करता है लेकिन पिता को यह सब फिजूल खर्ची लगता है। इस बात से पुत्र का मन रो रहा है – “उसे आँखों में हल्का जल लगने लगा। अगर कोई शीत युद्ध न होता पिता पुत्रों के बीच तो वह उन्हें जबरन पंखे के नीचे बुलाकर सुला देता लेकिन उसे लगा कि उसका युवापन एक प्रतिष्ठा की जिद कहीं चुराए बैठा है। वह इस प्रतिष्ठा के आगे कभी बहुत मजबूर, कभी कमजोर हो जाता है।“ (वही)
पाठ विश्लेषण एक की सीमा यह है कि वह उपरोक्त उद्धरण की अपेक्षा इसके तुरंत बाद वाले उद्धरण को (जो पुत्र खीझ में व्यक्त करता है) कथा के निष्कर्ष का मूल स्रोत बनाते हुए इसे पिता विरोधी कहानी साबित करने कि लिए इस्तेमाल करता है। ‘पिता तुम हमारा निषेध करते हो। तुम ढोंगी हो, अहंकारी – बज्र अहंकारी। लेकिन वह कभी चिल्लाया नहीं।‘ पाठ विश्लेषण एक उपरोक्त उद्धरण के मूल में पिता के लिये पुत्र का जो चिंतित स्वर है उसे नजरंदाज कर देता है जिसका उद्घाटन कहानीकार का लक्ष्य है।
यह पाठ उन सारी स्थितियों पर विचार करता है जिसमें इस तरह के संबंध निर्मित हुए। आजादी के बाद उभरे शिक्षित मध्य वर्ग और अशिक्षित किंतु कर्मठ पुरानी पीढी के मध्य लगाव और प्रेमभाव विद्यमान रहने के बावजूद समसामयिक दबावों ने क्यों इस तरह की स्थिति पैदा की कि एक पीढी दूसरी पीढी के लिये उसके संस्कारों और व्यवहारों के अनुसार ढलने के लिये तैयार नहीं हुई। जिसने एक कुढन और फ्रस्ट्रेशन को जन्म दिया। यह पाठ इस नए उभरे पढ़े-लिखे मध्यवर्मीय युवा मन की आकांशाओं के साथ पारिवारिक नींव के रूप में रक्षक पिता की भूमिका का विश्लेषण करता है। वह इसे रूढ़िगत मानसिकता और शिक्षित युवामन के संघर्ष के रूप में देखने की अपेक्षा इसे पारंपरिक व्यवहार और शहरोन्मुख तनाव के मध्य उभरे अंतर को विश्लेषित करने में देखता है। यह नया विश्लेषण इस रूप में इस कहानी का सबसे बेहतर विश्लेषण कहा जा सकता है क्योंकि यह एक पीढी को दूसरी पीढ़ी के सामने खड़ा करने की अपेक्षा पिता और पुत्र के बीच पीढिगत और व्यवहारगत विभिन्नताओं और समसामयिक स्थितियों में स्वयं को ढालने के लिये किए जाने वाले परिवर्तनों के रूप में विश्लेषित करता है। इसलिये वह इसमें संबंधों के एक नए यथार्थ का उद्घाटन देखता है और उसे अपने विश्लेषण का आधार बनाता है। संबंधों के यथार्थ की यह समझ ही नयी कहानी और साठोत्तरी कहानी के मध्य एक अंतर पैदा करती है। नयी कहानी में एक तरह का द्वंद्वात्मक व्यवहार परिलक्षित होता है। संबंधों के प्रति ईमानदारी का भाव वहाँ लगभग नगण्य है।
भीष्म साहनी की चीफ की दावत, उषा प्रियंवदा की वापसी में आपसी भावनात्मक संबंध बचा ही नहीं है। वहाँ संबंध की अपेक्षा संघर्ष प्रधान हो गया है। वहाँ नयी पीढ़ी पुरानी पीढी को छोड़कर आगे बढ़ना चाहती है। पर ज्ञानरंजन की कहानी में ऐसा नहीं है पुत्र के मन में पिता के जिद्दी स्वभाव के कारण कितनी ही खीझ क्यों न हो पर वह पिता की बेचैनी से चिंतित है। वह पिता को साथ लेकर चलना चाहता है।
पिता उमस भरी गर्मी में बाहर बेचैन हैं, जबकि घर के अन्य लोग पंखे में आराम से सो रहे हैं। पिता रात में गली मोहल्ले की चौकीदारी कर रहे हैं इस बात से वह दुखी जरूर है पर वह पिता पर गौरवांवित भी है कि पिता लगातार विजयी हैं। कठोर हैं तो क्या उन्होंने पुत्रों के सामने अपने को कभी पसारा नहीं। (पृष्ठ २०)
पिता कहानी मे पारिवारिक संबंध इसकी पूर्ववर्ती कहानियों (चीफ की दावत, वापसी आदि) सरीखे नहीं है जो इसे नयी कहानी से अलगाते हैं और यहीं पर साठोत्तरी कहानी अपनी पहचान स्थापित करती है। पिता के अपने कुछ संस्कार और परंपराएँ है उनके अपने सिद्धांत हैं जिन्हें वे बदलना नहीं चाहते। वे पुत्र द्वारा पिता के लिये बनायी गई सुविधाओं को फिजूलखर्ची मानते हैं। लेकिन क्या यह उनका दोष है हमें लगता है कि पिता का दोष इसमे उतना नहीं जितना की उस समय का है जिसमे यह कहानी लिखी गई जहाँ एक परिवार को पास में रहने के बावजूद भी साथ में न रह पाने के लिये अभिशप्त होना पड़ता है। यह कहानी की अंतर्वस्तु है। इसे पकडे बिना इस कहानी की सही व्याख्या तक पहुँचना बहुत मुश्किल है।
इस कहानी में ज्ञानरंजन ने जिस समस्या पर उंगली रखी है वह समस्या हिंदी कहानियों से लगभग नदारद है इसलिये कई आलोचक इसका जबरन साम्य कुछ कहानियों मे करते पाये जाते हैं। लेकिन उन कहानियों के संबंधों का यथार्थ और ‘पिता’ के संबंधों का यथार्थ बहुत हद तक अलग है। इस कहानी की विशेषता इसकी समकालीन संदर्भ सापेक्षता है। इसलिये यह कहानी संयुक्त परिवार के विघटन होते जाने के कारणों में नहीं जाती बल्कि विघटन होने की आशंका से त्रस्त है और इसलिये यह परिवार को संयुक्त बनाने की जद्दोजहद में लगे समाज की कहानी है। नयी कहानी में विभाजन, विश्वासघात और स्वतंत्रता से मोहभंग तथा विभाजनग्रस्तता का जो दौर बरपा था। साठोत्तरी कहानी उसे भुलाकर नये रिश्ते बनाने और उन्हें बचाये रखने में अपना महत्व समझती है।
वर्णन : शिल्प/शैली
स्वतंत्रता से पहले की कहानियाँ जिस तरह के शिल्प का प्रयोग करती थी वह शिल्प स्वतंत्रता के बाद की कहानियों का नहीं था स्वतंत्रता के बाद कहानी की शिल्पगत यात्रा के कई आयाम है एक आयाम वह है जहाँ जैनेन्द्र पाजेब की रचना करते हैं दूसरी जब अज्ञेय या इलाचंद्र जोशी रचना करते हैं तीसरी जब फणीश्वरनाथ रेणु अपनी तीसरी कसम और मैला आँचल से साहित्य में स्थापित होते है। चौथी जब नये कहानीकार निर्मल वर्मा परिंदे लेकर आते है जिसके बाद शिल्प के स्तर पर नयी कहानी में एक क्रांतिकारी बदलाव आता है। यह साठ के दशक की बाद है और इसमें कोई दो राय नहीं कि शिल्प के स्तर पर जितना परिवर्तन कहानी में निर्मल वर्मा ने किया उतना संभवत् अब तक नहीं हो सका है। निर्मल की कहानियों में शिल्प भी एक चरित्र बन कर कहानी के किरदारों के साथ संवाद स्थापित करता है। परिंदे कहानी में लतिका से कई जगह प्रकाश(रोशनी) के परोक्ष संवादों को सुना जा सकता है।
अकहानी का वैशिष्ट्य
अकहानी सिर्फ कथा के पूर्ववर्ती मापदंडो का ही निषेध नहीं करती अपितु यौन प्रतिको एवं सैक्स को केंद्र में भी रखती है। हालाँकि ज्ञानरंजन में इसका अंश अपने बाकि समकालीनों की तुलना में बहुत कम है। इसका शिल्प इन प्रतीकों को इस्तेमाल करने में हिचकता नहीं है। पत्नी के कुल्हे पर हाथ रखने पर भी उत्तेजना पैदा नहीं हुई इस तरह के वाक्य स्वतंत्रता से पहले की कहानियों में या तो आते ही नहीं थे या फिर उनकी शैली अलग होती थी। साठ के दशक के बाद उभरी कहानियों में जिन लोगों ने इस शिल्प को उसके सिर के बल खड़ा किया उनमे काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और महेंद्र भल्ला का नाम उल्लेखनीय है। महेंद्र भल्ला की कहानी एक पति के नोट्स की ये पंक्तियाँ उस दौर को बहुत जल्दी हजम नहीं हो पायी थी कि यदि वह मेरी पत्नी ना होती तो मैं उसे चूम लेता। जैसाकि हमने कहा कि इन साठोत्तरी कहानियों में शिल्प सीधे सीधे उपस्थित न होकर कथ्य के साथ मिक्स होकर आता है। यहाँ आप शिल्प को उस तरह से नहीं देख सकते जैसे कि निर्मल वर्मा की कहानियों में आप शिल्प को पहचान लेते हैं यहाँ प्रतीक और बिंब को पहचानने के लिये उसके कथ्य की समझ हासिल करना बेहद ज़रूरी है क्योंकि यहाँ शिल्प कथ्य का जामा पहनकर आगे बढ़ता है।
प्रतीकात्मकता
कहानी में गर्मी बेचैनी के प्रतीक के रूप में उभरी है। यह कथा चरित्रों के संवादों का हिस्सा है। पिता और पुत्र के संबंध इस बेचैनी(गर्मी) को दूर करने की सुविधाओं को लेने और इंकार करने से ही बनते हैं। पुत्र इस बेचैनी को दूर करने के लिये साधन जुटाता पिता उसे अस्वीकार करता है। एक अन्य अर्थ में पिता पुत्र के परिवार के उन सारी सुविधाओं को त्याग देता है। ताकि उसका परिवार उन सुविधाओं का उपभोग कर सके।
आज बेहद गर्मी है। रास्ते-भर उसे जितने लोग मिले, उन सबने उससे गर्म और बेचैनकर देने वाले मौसमकी ही बात की।
रोमांस का संदर्भ और गैर रोमांचित शब्द संरचना
गर्मी को लेकर कहीं कहीं कथाकार ने काफी विभत्स वर्णन किया है जैसे शायद पसीने से भीगी टांग पत्नी के बदन से छू गयी थी। मुँह में बुरा सा स्वाद भर आया था आदि।
बिंबात्मकता :
चारो तरफ धुमिल चाँदनी फैलने लगी है। सुबह जो दूर है, के भ्रम में पश्चिम से पूर्व की ओर कौवे काँव काँव करते उड़े।
देशज शब्दों का प्रयोग :
अकबकाकर, लपटूँ, लद्द-लद्द, पसरे, टनटना. अमावट
अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग :
वैनिटी, म्यूनिसिपल
क्या आप जानते हैं ?
- ज्ञानरंजन एक कहानीकार होने के साथ-साथ हिंदी की एक विशिष्ट पत्रिका पहल के संपादक भी हैं।
- इतने महत्वपूर्ण कथाकार होने के बावजूद भी ज्ञानरंजन ने लगभग तीन दशकों से कोई कहानी नहीं लिखी है।
- अपने शुरुआती पाठ के दौरान ज्ञानरंजन की इस कहानी को समीक्षकों ने पिता-विरोधी करार दिया था। अपनी कहानी की इस तरह की व्याख्या से ज्ञानरंजन काफी दुखी हुए थे।
- नयी कहानी के जवाब में सातवें दशक के कथाकारों ने अपनी कहानी को अकहानी कहना आरंभ कर दिया था। अकहानी दरअसल कथा के निश्चित मापदंडों का निषेध करती है।
- ज्ञानरंजन की इस कहानी में गर्मी एक प्रतीक के रूप में उभरती है। यह कथा चरित्रों के संवादों का मुख्य हिस्सा रही है। जिसे इस कहा
स्वमूल्याँकन प्रश्नमाला
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :
- पिता कहानी का मुख्य आधार बिंदु(थीम) क्या है?
- इस कहानी में उभरे पारिवारिक संबंध अपनी पूर्ववर्ती कहानियों से किस प्रकार भिन्न हैं?
- एक पाठक के रूप में पिता के चरित्र के प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
- पिता कहानी की केंद्रीय संवेदना क्या है?
- पिता कहानी किस दृष्टि-बिंदु से कही गयी है?
लघु उत्तरीय प्रश्न :
- पिता कहानी में पिता का चरित्र चित्रण किजिए।
- पुत्र की बेचैनी का कारण क्या था?
- घर में शॉवर लगवाने के बावजूद पिता नल पर जाकर क्यों नहाते थे?
- पिता कहानी में गर्मी का प्रतीकार्थ क्या है? स्पष्ट कीजिये।
- साठोत्तरी कहानी के संदर्भ में ज्ञानरंजन की कहानीकला का मूल्याँकन कीजिये ?
वस्तुनिष्ठ प्रश्न :
1. पुत्र ने घर में घुसते ही किस चीज़ का अंदाज़ा लेने के लिये बिजली जलाई?
क) रसोई का
ख) बिस्तर का
ग) पत्नी का
घ) पिता का
2. ज्ञानरंजन किस पत्रिका के संपादक के रूप में विख्यात हैं?
क) वागर्थ
ख) कथादेश
ग) पहल
घ) नया ज्ञानोदय
3. इनमें से कौन सातवें दशक का कथाकार नहीं है?
क) ज्ञानरंजन
ख) काशीनाथ सिंह
ग) दूधनाथ सिंह
घ) नामवर सिंह
4. सातवे दशक में लिखी गई कहानियों के लिये किस पद का इस्तेमाल किया जाता है?
क) नयी कहानी
ख) साठोत्तरी कहानी
ग) सचेतन कहानी
घ) समानांतर कहानी
5. निम्नलिखित में से कौन सी कहानी ज्ञानरंजन द्वारा लिखित नहीं हैं?
क) संबंध
ख) घंटा
ग) पिता
घ) जंगल जातकम
सहायक सूची
पुस्तकें -
- अवस्थी, देवीशंकर, (2008), नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन
- ज्ञानरंजन, (2007), प्रतिनिधि कहानियाँ, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन
- यादव, राजेंद्र (1993) एक दुनियाः समानांतर, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- सिंह, विजयमोहन (2002) कथा समय, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- सिंह, विजयमोहन (1983) आज की कहानी, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- चौधरी, सुरेंद्र, (1995) हिंदी कहानीःप्रक्रिया और पाठ, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- रोडरमल गार्डन, चार्ल्स(1982) हिंदी कहानीःअलगाव का दर्शन (अनु. वर्मा, अर्चना सिंह, नत्थन) दिल्ली, अक्षर प्रकाशन
- पाखी हिंदी पत्रिका (सं.) भारद्वाज, प्रेम (विशेषांक- ज्ञानरंजन) अंक सितंबर 2012
विषय प्रवेश
- स्वातंत्र्योत्तर कहानी में आए बदलावों को समझ सकेंगे।
- साठ के बाद की कहानी में यथार्थ के स्तर पर आए परिवर्तनों की पहचान कर सकेंगे।
- पिता कहानी की समकालीन एवं पूर्ववर्ती कहानियों से तुलना कर सकेंगे।
- इस कहानी की तत्कालीन ही नहीं बल्कि समकालीन संदर्भ-सापेक्षता की पहचान कर सकेंगे।
- पिता-पुत्र अथवा पारिवारिक संबंधों की यथार्थ के नए स्तरों पर पहचान कर सकेंगे।
- परंपरागत और आधुनिक होते जाने के बीच उभरे द्वंद्व और इस द्वंद्व में बने एक नए तरह के संबंधों की व्याख्या कर सकेंगे।
- आजादी के बाद उभरे नए शिक्षित मध्यवर्ग के उभार और इस शिक्षित मध्यवर्ग को बनाने या तैयार करने वाली पीढ़ी के बीच उपजे द्वंद्वात्मक संबंध को पहचान सकेंगे।
- साथ ही जान सकेंगे कि संबंधों में आई इस द्वंद्वात्मकता का कारण क्या है?
ज्ञानरंजन : व्यक्तित्व/कृतित्व
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पाठ-विश्लेषण
ज्ञानरंजन अपनी कहानी ‘पिता’ में पिता-पुत्र संबंधों के यथार्थ को अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की तुलना में काफी अलग ढंग से प्रस्तुत करते हैं। पुत्र उमस भरी गर्म रात में घर लौटा, उसने आध पल को बिस्तर का अंदाजा लेने के लिए बिजली जलाई। बिस्तर फर्श पर ही पड़े थे। पत्नी ने सिर्फ इतना कहा कि ‘आ गये’ और बच्चे की तरफ करवट लेकर चुप हो गयी।
वातावरण बहुत गर्म है। गर्मी की वजह से कपड़े पसीने में पूरी तरह से भीग चुके हैं। घर में सभी लोग सो चुके है घर के भीतर सिर्फ वही जागा है। घर में अगर पुत्र जागा है तो बाहर पिता भी जागे हुए हैं। रोती बिल्ली को देख पिता सचेत हो गये और उन्होंने डंडे की आवाज़ से बिल्ली को भगा दिया। जब वह घूम फिर कर लौट रहा था तब भी उसने कनखी से पिता को गंजी से अपनी पीठ खुजाते देखा था। लेकिन वह पिता से बचकर घर में घुस गया। पहले उसे लगा कि पिता को गर्मी की वजह से शायद नींद नहीं आ रही लेकिन फिर एकाएक उसका मन रोष से भर गया क्योंकि घर के सभी लोग पिता से पंखे के नीचे सोने के लिये कहा करते हैं लेकिन पिता हैं कि सुनते ही नहीं।
कुछ देर वह अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहा फिर कुछ देर बाद उत्सुकतावश उठा और उसने खिड़की से बाहर देखा। पिता बेचैन थे सड़क की बत्ती बिल्कुल उनकी छाती पर पड़ रही थी वे बार-बार करवट बदल रहे थे। फिर कुछ देर बाद उठकर पंखा झलने लगे। इसके बाद पिता उठकर चौकीदारों की तरह घर के चारों ओर घूमने लगते हैं। पुत्र को यह सब अपनी प्रतिष्ठा के खिलाफ़ लगता है। उसे लगता है कि इससे पिता मोहल्ले में हमारे सम्मान को ठेस पहुँचा रहे हैं। वह कमरे की दीवार से पीठ टिकाकर तनाव में सोचने लगता है। बिजली का मीटर तेज चल रहा है सब लोग आराम से पंखे के नीचे सो रहे हैं लेकिन पिता की रात कष्ट में ही बीत रही है। पिता जीवन की अनिवार्य सुविधाओं से भी चिढ़ते है क्यों? पिता चौक से आने के लिये रिक्शे वाले से चार आने मांगने पर तीन आने और तीन आने माँगने पर दो आने लेने के लिये काफी चिरौरी करते हैं। घर में वॉश वेसिन है पर वे बाहर जाकर बगियावाले नल पर ही कुल्ला-दातुन करते हैं। गुसलखाने में खूबसूरत शॉवर होने के बावजूद पिता को आँगन में धोती को लंगोट की तरह लपेटकर तेल चुपड़े बदन पर बाल्टी भर-भर पानी डालना ही भाता है। इसलिये वह पिता पर ही झल्लाने लगता है।
लड़कों द्वारा बाजार से लाई गयी बिस्किटें, मेहँगे फल पिता कुछ भी नहीं लेते। कभी लेते भी हैं तो बहुत नाक-भौं सिकोड़कर। बाहर पिता ने लड़ते चिचियाते कुत्तों को भगाया। वह पिता के व्यवहार से फिर दुखी हो गया। उसने कितनी बार पिता से कहा कि मुहल्ले में हम लोगो का सम्मान है आप भीतर सोया कीजिये। अच्छे कपड़े पहना कीजिये और बाहर पहरा मत दिया कीजिए ये सब बहुत भद्दा लगता है पर पिता इन सब बातों पर कोई ध्यान नहीं देते। कितना भी बढ़िया कपड़ा लाकर दो और कहो कि इसे किसी अच्छे दर्जी से सिलवा लो तो भी वे मुहल्ले के ही किसी भी सामान्य से दर्जी से कमीज कुरता सिलवा लेते हैं। इस पर पिता के अपने तर्क हैं। घर के लोग पिता के इस व्यवहार को देखकर हर बार प्रण लेते है कि वे अब पिता को उनके हाल पर छो़ड़ देंगे लेकिन कुछ समय बाद फिर से पिता के लिये सबका मन उमड़ने लगता है।
वह इन सब बातों को भुलाना चाहता था उसने सोने की इच्छा की पर खुद को असहाय पाया। फिर उसने अपनी पत्नी देवा के बारे में सोचने की, उसके शरीर को स्पर्श करने की इच्छा मन में की ताकि उसका ध्यान पिता से हट सके पर देवा के कुल्हे को स्पर्श कर भी वह अपने भीतर उत्तेजना पैदा नहीं कर सका। वह पिता के लिये द्वंद्व की स्थिति से भर जाता है। एक स्तर पर उसे पिता बड़े हठी दंभी और अहंकारी लगते हैं लेकिन दूसरे ही क्षण उसे लगता है कि पिता लगातार विजयी है। कठोर है तो क्या,उन्होंने पुत्रों के सामने अपने को कभी पसारा नहीं। वह इन सब बातों को सोचकर गौरवांवित और लज्जित दोनों विरोधाभासी अवस्थाओं को महसूस करता है। एक बार उसके मन में आया की वह पिता को आग्रहपूर्वक भीतर आकर पंखे में सोने के लिये कहे लेकिन वह ऐसा न कर सका। पूरी रात जागने के बाद अलसुबह उसकी नींद काफूर हो चुकी थी उसने पिता को देखा। पिता सो नही गये है अथवा कुछ सोकर पुनः जगे हुए है। पता नहीं। अभी ही उन्होंने हे राम कहकर जम्हाई ली है। पिता उठे उन्होंने अपना बिस्तर गोल करके एक सिरहाने पर रखा और खाट की बाध को पानी से तर किया और पंखा झलने लगे। तड़का होने में अभी देर थी। वह खिड़की से हटकर बिस्तर पर आया। अंदर हवा वैसी ही लू की तरह गर्म है। दूसरे कमरे स्तब्ध हैं पता नहीं बाहर भी उमस और बेचैनी होगी। वह जागते हुए सोचने लगा, अब पिता निश्चित रूप से सो गये हैं शायद।
‘पिता’ ज्ञानरंजन की महत्वपूर्ण कहानियों में से एक है। पिता के अलावा ज्ञानरंजन की पहचान ‘संबंध’, ‘फेंस के इधर-उधर’ और ‘घंटा’ कहानियों से भी बनी है। और यह पहचान इस तरह की है कि लगभग तीस वर्षों तक कहानियाँ न लिखने के बावजूद भी साहित्य समाज और उनका पाठक-वर्ग इन्हें अपने जेहन से नहीं निकाल सका है। ऐसा क्या है ज्ञानरंजन में जो उन्हें अपने समकालीनों और पूर्ववर्ती कहानीकारों से अलग करता है।
ज्ञानरंजन का दौर दरअसल आज़ादी के तुरंत बाद वाला (मोहभंग, विभाजनग्रस्तता आदि) दौर न होकर उससे उबरने और संबंधों में आई खटास को दूर करने और उन्हें मजबूत करने का दौर था। पर इस दौर की विडंबना यह थी कि संबंध बनाए रखने के चक्कर में हाथ से छूटते जा रहे थे जैसे रेत मुट्ठी बंद करने पर हाथ से तेजी से छूटती है। ज्ञानरंजन ने अपनी कहानियों की पृष्ठभूमि इन्हीं संबंधों खासकर पारिवारिक संबंधों को बनाया है।
उनकी कहानियों के समीक्षकों को यह मुगालता हो सकता है कि वे पारिवारिक संबंधों में आई दरार और दो पीढियों के बीच बढती दूरियों को अपनी कहानियों का आधार बनाते है जहाँ पुरानी पीढ़ी बेहद जिद्दी, और रूढिवादी है। पर उनकी कहानी पिता इसे तुरंत खारिज कर देती है और इसका सही विश्लेषण इसके पाठ में ही निहित दिखाते हुए संयुक्त परिवार के विघटन और दो पीढियों में आई भावनात्मक दूरी जैसे जुमलो को अपनी कहानियों से कोसो दूर रख छोड़ती है। इसलिये भी ज्ञानरंजन की कहानियों का पाठ बेहद सावधानी से किया जाना चाहिए असावधानी की अवस्था में उपरोक्त मुगालते फिर फिर पैदा होंगे। ज्ञानरंजन की पहचान सिर्फ कहानियों ने ही नहीं बनाई। उन्होंने अपनी पहचान पहल के प्रगतिशील और कर्मठ संपादक के रूप में भी अर्जित की है।
पिता कहानी उमस भरी गर्म रात अथवा एक प्रहर में एक पिता की मनःस्थिति को पु्त्र की नज़र से अथवा वाचक के रूप में बयां करती है। एक पुत्र जो इस उमस भरी रात में घर लौटा है इस डर से कि कहीं किसी की नींद न उचट जाए सिर्फ आध पल को अपने बिस्तर का अंदाज लेने के लिए बिजली जलाता है। बिस्तर फर्श पर ही पड़े हैं। पत्नी सोते-सोते सिर्फ इतना कहती है कि ‘आ गये’ और बच्चे की तरफ करवट लेकर चुप हो जाती है। यह कहानी का सबसे शुरुआती हिस्सा है जो कहानी की पृष्ठभूमि का निर्माता भी है। कथाकार यहाँ घर में भरी गर्म उमस का संकेत देने के साथ परिवार के लोगों के दिल में भरी उमस का संकेत भी देता है। यहाँ से कहानी शुरू जरूर होती है पर इसे आधार इसके बिल्कुल बाद वाले हिस्से में मिलता है। यहाँ कहानी का उद्देश्य अपनी या अपनी पत्नी की स्थिति दर्शाना नहीं बल्कि सिर्फ वातावरण की निर्मिति करना है। हालाँकि सातवें दशक की कथा या साठोत्तरी कहानी में पूर्वनिर्धारित कथा तत्वों का लगभग ह्रास हो चुका है लेकिन तब भी हम कहेंगे कि यहाँ कथातत्व ह्रास या खत्म होने की अपेक्षा परिवर्तित हो गये हैं अर्थात अपने आधारों या कहने के ढंग में परिवर्तन कर लेते हैं। जिसकी शुरुआत स्वतंत्रता के साथ ही हिंदी कहानी में हो जाती है। जिसके प्रयोग जैनेंद्र और अज्ञेय ने पहले ही कर दिये थे। यही कारण है कि यहाँ हमें कहानी का उद्देश्य, देशकाल और वातावरण या फिर चरित्र-चित्रण प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिखता। दरअसल इस दौर के कथाकार का लक्ष्य कहानी कहने से ज्यादा अपनी स्थिति का समकालीन संदर्भों में उद्घाटन करना रहा है। यही कारण है कि साठोत्तरी कहानी में सैल्फ(मैं) कहानी कहता है। जैसाकि ज्ञानरंजन की अधिकतर कहानियों में हमें दिखता है।
ज्ञानरंजन की यह विशेषता है कि वह अपनी कहानियों में स्वयं को सामाजिक स्थितियों के भीतर और समकालीन संदर्भों में स्थापित करने में कामयाब रहें हैं। पिता कहानी को कई आलोचकों ने पिता-विरोधी कहानी के रूप में भी देखा है जो इस कहानी की एक गलत व्याख्या है। यह कहानी न तो कहीं पिता विरोधी है और न हीं इसमें किसी खास पीढ़ी को निशाना बनाया गया है। हाँ, यह कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की अपेक्षा पिता-पुत्र संबंधों का थोड़ा जुदा विश्लेषण जरूर करती है। पिता और पुत्र के मध्य दो पीढियों का फासला होने के बावजूद यह कहानी पिता और पुत्र के संबंधों की स्वातंत्र्योत्तर समझ विकसित करने और उनमे उपजने वाले भावी द्वंद्व की शुरुआती अवस्था पर बात करती है।
यहाँ पिता और पुत्र के मध्य एक प्रेममयी और भावनात्मक दूरी है लेकिन इसके बावजूद दोनों एक दूसरे की चिंता करते हैं। इसलिये यह कहना कि यहाँ बूढों की दयनीय स्थिति दर्शायी गयी है(जैसाकि कई विश्लेषकों ने कहा है) सरासर गलत होगा। पिता और पुत्र पास रहने पर भी साथ नहीं रह पाते। लेकिन यह सिर्फ इस कहानी की ही नहीं उस पूरे दौर और यहाँ तक कि आज के दौर की भी विडंबना है। दोनों के अपने आग्रह हैं पर कौन दुराग्रह से ग्रस्त है यह कहानीकार कहीं नहीं बताता सिर्फ पिता के संस्कारों और उनकी कार्यविधियों का ब्योरा वह हमारे सामने रखता है। यह बात सही है कि सरसरी और ऊपरी नजर से देखने पर इस कहानी में पिता की जिद और पुत्र की इच्छाओं की कद्र न करने के कारण दोषी पिता ही ठहरते हैं। पर यह न तो कहानी का लक्ष्य है और न ही कहानीकार का। इसलिये हमने शुरू में ही कहा यह कहानी अपने पाठ के दौरान काफी सावधानी बरतने की मांग करती है।
साठोत्तरी कहानी और ज्ञानरंजन :
स्वतंत्रता के बाद उपजी नयी कहानी से इतर साठोत्तरी कहानी पद का प्रयोग सन् साठ के बाद लिखी कहानियों के लिये किया जाता है। इस कहानी की भावभूमि इसकी पूर्ववर्ती कहानियों अथवा नयी कहानी से बहुत मायनों में जुदा है। हिंदी कथा साहित्य का अध्ययन करने के दौरान आप देखेंगे कि संपूर्ण कथा साहित्य खासकर स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य को कई आंदोलनों में बाँटा गया है। नयी कहानी, साठोत्तरी कहानी जिसमें अकहानी, सचेतन कहानी, समानांतर कहानी और समकालीन कहानी में इन कथा आंदोलनों को बाँटा गया है। साठोत्तरी या सातवें दशक के कथाकारों में ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, महेंद्र भल्ला, काशीनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, राजकमल चौधरी आदि के नाम प्रमुख हैं। यह ध्यान देने योग्य है कि इस दौर की कहानियाँ और कथाकार किसी खास विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहे हैं।
जनवादी और प्रगतिशील विचारधारा से संबद्ध ये कथाकार कहानी की मूल थीम प्रगतिशील रखने के बावजूद भी प्रयोगों से पीछे नहीं हटे है। काशीनाथ सिंह, राजकमल चौधरी, रवींद्र कालिया, महेंद्र भल्ला, और स्वयं ज्ञानरंजन ने भी अपनी कहानियों में प्रयोग किये हैं। लेकिन विचार के स्तर पर साठोत्तरी कहानी में प्रगतिशील तत्वों को साधने में ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह की अहम भूमिका है। अगर प्रगतिशीलता को मार्क्सवाद का साहित्यिक रूपांतरण मानने की भूल न की जाए तो इसमे कोई संदेह नहीं कि साहित्य की मूल शक्ति प्रगतिशील रही है। मानवतावाद का स्वर इसका सबसे जरूरी और अनिवार्य स्वर रहा है। लेकिन लेखक पर अपनी प्रतिबद्धता और विचारधारा का ही दबाव नहीं होता बल्कि वह अपने लेखन में अपने समय और समकालीन संदर्भवत्ता को भी साधता है। साठोत्तरी कहानी इस मायने में खास है कि इसके लेखक अपनी विचारधारा और समकालीनता को एक साथ साधते हुए अपने प्रयोगों और रचनात्मकता को बनाए रखते हैं।
नयी कहानी का अवसान और साठोत्तरी कहानी का उदयकाल एक ही है यह वह समय है जब साठोत्तरी कहानी अपने नये विचारों नयी रचनात्मकता के द्वारा सातवें दशक पर दस्तक दे रही थी। जिसका संकेत नामवर सिंह ने अपने कॉलम एक नयी शुरुआत के जरिये दे दिया था। एक और शुरुआत की आखिरी किश्त लिखते हुए नामवर सिंह ने साठोत्तरी कहानी की इस ध्वनि को पहचाना था और इसका स्वागत किया था सन ६५-६६ में कलकत्ता में होने वाले कथाकुंभ में नये कथाकारों की ही नहीं बल्कि कथा समीक्षकों की भी झण्डाबरदारी बदल गयी थी, और यहीं पर कहानी समीक्षा का झण्डा नामवर सिंह की अपेक्षा देवीशंकर अवस्थी के हाथो में थमा दिया गया था।
साठोत्तरी कहानीकारों के रूप में काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया लगातार चर्चित हो रहे थे और मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, निर्मल वर्मा सरीखे स्थापित कथाकारों के साथ यह पीढी अपनी कहानियाँ सामने ला रहीं थीं। यह पीढ़ी साहित्य समाज में अपने एक अलग तेवर और शिल्प के साथ उतर रही थी। नयी कहानी की तुलना में साठोत्तरी कहानी में संबंधों का एक नया यथार्थ देखने को मिला था। यह पारिवारिक और रागात्मक संबंध एक और जिंदगी, मिस पाल, एक दिन का मेहमान, रोज़(गैंग्रीन), वापसी, चीफ की दावत, छोटे-छोटे ताजमहल आदि के चरित्रों के संबंधों से भिन्न थे। ज्ञानरंजन की पिता कहानी इसका प्रमाण है। इसलिए साठोत्तरी कहानी का विश्लेषण आप नयी कहानी के प्रतिमानों को आधार बनाकर नहीं कर सकते। नयी कहानी में पीढ़ियों के मध्य जिस तरह का द्वंद्व दिखाई देता है उस तरह का द्वंद्व साठोत्तरी कहानी के चरित्रों में नहीं है बल्कि यहाँ चरित्रों की भाषा और शिल्प ही नहीं बल्कि उनका मिजाज़ भी बदला है। अगर ऐसा न होता तो साठोत्तरी कहानी स्वयं को स्थापित नहीं कर पाती बल्कि नयी कहानी में ही विलीन होकर रह जाती लेकिन यदि साठोत्तरी कहानी स्वयं को नयी कहानी से अलगा सकी और एक नये आंदोलन का रूप ले सकी तो इसकी वैचारिकता और इसके तेवर की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका रही।
सातवें दशक का कथाकार संबंधों में होने वाले परिवर्तन का भोक्ता कथाकार है। सातवें दशक की शुरुआत जिन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों में होती है उसमे साठोत्तरी कहानी संरचना के पूर्ववर्ती ढ़ाँचे को बनाए नहीं रख सकती थी। परिणामस्वरूप पूर्ववर्ती ढ़ाँचा टूट गया और कहानी की संरचना बदल गयी। इस दौर का कथाकार नये जीवन यथार्थ के संदर्भ में बदली हुई स्थितियों-परिस्थितियों का अध्ययन करता है और पाता है कि बदली हुई परिस्थितियाँ बने बनाये पारिवारिक संगठन और संयुक्त परिवार के गठन को चुनौती दे रहीं हैं। लेकिन इस दौर का कथाकार इस परिस्थिति को स्वीकार करने की अपेक्षा उससे लोहा लेता है। वह टूटता है हारता है पर रचनात्मक स्तर पर वह अपने लेखन को इसके अनुसार नहीं मोड़ता यही साठोत्तरी कहानी की शक्ति है। अगर ऐसा होता तो ज्ञानरंजन पिता काशीनाथ सिंह अपना रास्ता लो बाबा और जंगल जातकम जैसी कहानियाँ इस दौर में नहीं लिख पाते। यह प्रमाण है कि वे अपनी समकालीन परिस्थियों को अपने साहित्य में अभिव्यक्ति देने के लिए अपना शिल्प और अपनी भाषा चुनते हैं। साठोत्तरी कहानी में मूल्यों के प्रति विद्रोह के मौजूद होने के बावजूद यह अपनी पूर्ववर्ती कहानियों की भाँति उसका पूरी तरह निषेध नहीं करती।
ज्ञानरंजन की कहानियों की यह विशेषता है कि वह अपने निजी जीवन में भोगी स्थितियों को सामाजिक धरातल तक लाने में सक्षम रहे हैं। पारिवारिक संबंधों के बदले स्वरूप को दिखाते हुए ज्ञानरंजन की कहानी पिता पुरानी पीढ़ी और नयी पीढ़ी में आए मानसिकता के बदलाव का चित्रण करती है लेकिन इनके संबंध में किसी तरह का निष्कर्ष देने की कोशिश नहीं करती। पिता की पीढ़ी अगर अपनी समकालीन स्थितियों से नहीं जुड़ पा रही तो पुत्र की पीढ़ी भी अपने पिता की पीढ़ी को समझने की जद्दोजहद नहीं करती है। इस स्तर पर आकर ज्ञानरंजन थोड़े कमजोर पड़ जाते हैं संभवत उनका युवा पूर्वाग्रह इसके आड़े आ जाता है क्योंकि वे स्वयं को पुत्र वाली पीढ़ी से संबद्ध करते हैं। ज्ञानरंजन की पिता कहानी की यह खासियत है कि दो पीढ़ियों के मध्य की मार्मिक टूटन को दिखाने के बावजूद यह दोनों पीढ़ियों के मध्य के भावनात्मक लगाव को किसी रूप में कम नहीं होने देती।
व्याख्या अथवा विश्लेषण की दृष्टि से इस कहानी के दो पाठ हो सकते हैं। पहला पाठ इसे संयुक्त परिवार के विघटन, दो पीढियों के संघर्ष, पिता-विऱोधी और रूढिगत मानसिकता और आधुनिकता के द्वंद्व के रूप में विश्लेषित करता है तो इसी कहानी का दूसरा पाठ विश्लेषण कहानी के मर्म तक पहुँचते हुए इस कहानी में पारिवारिक संबंधों को नए रूप में देखते हुए यथार्थ के बदलते तेवर और मिजाज को ध्यान में रखते हुए पिता और पुत्र के संबंधों में आई दूरी की संदर्भ सापेक्ष और समकालीन व्याख्या करता है।
इस पाठ के अनुसार पिता रूढ़ियों से चिपके होने के कारण आधुनिक पीढी को नहीं समझ पाते। वे अपनी जिद के आगे अपने बच्चों की इच्छाओं और मान-सम्मान का भी खयाल नहीं करते। इस विश्लेषण के अनुसार चूँकि संयुक्त परिवार का विघटन स्वतंत्रता के पश्चात तेजी से हुआ इसलिये बूढों की समस्याएँ खासकर अकेले होते जाने और असहाय होते जाने की पीड़ा अचानक से बढ़ गयी। बच्चों अथवा युवाओं के गाँव से बाहर शहर जाने पर ये लोग गाँव में ही रह जाते हैं। पिता में कहानीकार का उद्देश्य इसी समस्या को रेखांकित करने के साथ-साथ पुरानी पीढी की रूढिवादिता को उद्घाटित करना भी रहा है। यह पाठ इस कहानी को पिता विरोधी करार देता है।
पर असल बात तो यह है जो इस पाठ की अपनी समस्या है। जो समस्या ऊपर बताई गयी है वैसी समस्या ज्ञानरंजन की इस कहानी में नहीं है। यहां पिता परिवार के बड़े और सम्मानित सदस्य हैं। चूँकि परिवार साथ में ही रहता है। तो अकेलपन की पीड़ा भी नहीं है। यहाँ तक परिवार के सभी सदस्य पिता के लिये सुविधाएँ जुटाने का प्रयत्न करते हैं। उनकी एक ही चाह है कि पिता अच्छा खाएँ, अच्छा पहने और अच्छे से रहें लेकिन पिता हैं कि उन्हें इन सुविधाओं में कोई रस नहीं मिलता। वे अपनी ही तरह से रहते हैं। उपरोक्त पाठ इस द्वंद्व को उद्घाटित करने की अपेक्षा कहानी को पिता विरोधी क्रांतिकारी दर्शन के रूप में व्याख्यायित करता है। स्वयं ज्ञानरंजन इस तरह की व्याख्या से व्यथित हैं वे अपनी कहानियों के प्रतिनिधि संकलन की भूमिका में इस व्यथा को बयां करते हैं। वे लिखते हैं कि “मेरी पिता कहानी की तारीफ में उसे पिता विरोधी दर्शन के साथ जोड़ने की क्रांतिकारी आलोचना सामने आई। मैं इस तरीके को कभी पसंद नहीं कर सका, क्योंकि मेरी कहानियों में निजी मामले काफी हद तक झूठ भी थे – हाँ, वे सार्वजनिक सच्चाइयों के साथ स्वाभाविक रूप से जोड़े जा सकते थे।“ (प्रतिनिधि कहानियाँ, पृष्ठ 6)
कहानी में द्वंद्व की सृष्टि पुत्र द्वारा पिता के लिए सुविधाएँ जुटाने के प्रयासों के प्रति पिता की उदासीनता और अरुचि से होती है और यहीं आकर कहानी की अंतर्वस्तु खुलने लगती है। हालाँकि यह कहानी की संरचना का मूल हिस्सा होने के बावजूद भी कहानी की मूल संवेदना नहीं है। मूल संवेदना कहानी में प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आती उसे कुरेदना पड़ता है। पिता गर्मी में बाहर सो नहीं पा रहे और पिता की बेचैनी पुत्र की बेचैनी बन गयी है। यहाँ गर्मी इस बेचैनी का प्रतीक है जो हर जगह विद्यमान है घर में, बाहर, आंगन में, हर जगह यह बेचैनी कहानी के किरदारों के साथ आपको अपनी क्रिया करती दिखेगी। कहानी के संवादों में यह एक चरित्र की तरह उभरती है। हिंदी कथालोचना की यह बहुत बड़ी सीमा है कि ज्ञानरंजन की इस कहानी में गर्मी के इस प्रतीक को वह अब तक पकड़ नहीं सकी है। यह हिस्सा कहानी का मुख्य बंध है जिसे खोले बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते हैं और यही पाठ विश्लेषण – एक की भी समस्या है।
पिता बाहर नहीं सो पा रहे और भीतर पुत्र सबके सोने के बावजूद जागा हुआ है और पिता की क्रियाओं पर उसका ध्यान केंद्रित है वे रात में मौहल्ले की चौकीदारी कर रहे हैं रोती बिल्ली को भगा रहे हैं। खाट की बाध को गीला कर रहे हैं। पुत्र की बेचैनी इतनी अधिक है कि पत्नी के कूल्हे पर हाथ रखने से भी उसमें उत्तेजना उत्पन्न नहीं होती, वह पिता के लिेये चिंतित हैं।
पिता और पुत्र की पीढ़ी में विचार और व्यवहार का अंतर होने के बावजूद भी भावात्मक राग संबंधों की सहसंबद्धता साफ परिलक्षित होती है और यह एक तरफा नहीं हैं। कहानीकार उस संवेदना को कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहता है और यही कहानी का लक्ष्य भी है।
पुत्र का युवा मानस अपनी प्रतिष्ठा के लिये लड़ रहा है तो पिता अपने संस्कारों और परंपरा को छोड़ना नहीं चाहते जिससे दोनों के मध्य रागात्मक और भावुक संबंध होने के बावजूद भी एक दूरी बनी हुई है। पुत्र पिता के बाहर गर्मी में रहने से चिंतित है, वह लज्जित हैं वह और उसका परिवार पंखे में सोए और पिता उमस भरी गर्मी में बाहर खाट पर पानी डालते पड़े रहे पर वह कुछ कर नहीं सकता, वह मन ही मन दुखी है। परिवार पिता को सारी सुख सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रयास करता है लेकिन पिता को यह सब फिजूल खर्ची लगता है। इस बात से पुत्र का मन रो रहा है – “उसे आँखों में हल्का जल लगने लगा। अगर कोई शीत युद्ध न होता पिता पुत्रों के बीच तो वह उन्हें जबरन पंखे के नीचे बुलाकर सुला देता लेकिन उसे लगा कि उसका युवापन एक प्रतिष्ठा की जिद कहीं चुराए बैठा है। वह इस प्रतिष्ठा के आगे कभी बहुत मजबूर, कभी कमजोर हो जाता है।“ (वही)
पाठ विश्लेषण एक की सीमा यह है कि वह उपरोक्त उद्धरण की अपेक्षा इसके तुरंत बाद वाले उद्धरण को (जो पुत्र खीझ में व्यक्त करता है) कथा के निष्कर्ष का मूल स्रोत बनाते हुए इसे पिता विरोधी कहानी साबित करने कि लिए इस्तेमाल करता है। ‘पिता तुम हमारा निषेध करते हो। तुम ढोंगी हो, अहंकारी – बज्र अहंकारी। लेकिन वह कभी चिल्लाया नहीं।‘ पाठ विश्लेषण एक उपरोक्त उद्धरण के मूल में पिता के लिये पुत्र का जो चिंतित स्वर है उसे नजरंदाज कर देता है जिसका उद्घाटन कहानीकार का लक्ष्य है।
यह पाठ उन सारी स्थितियों पर विचार करता है जिसमें इस तरह के संबंध निर्मित हुए। आजादी के बाद उभरे शिक्षित मध्य वर्ग और अशिक्षित किंतु कर्मठ पुरानी पीढी के मध्य लगाव और प्रेमभाव विद्यमान रहने के बावजूद समसामयिक दबावों ने क्यों इस तरह की स्थिति पैदा की कि एक पीढी दूसरी पीढी के लिये उसके संस्कारों और व्यवहारों के अनुसार ढलने के लिये तैयार नहीं हुई। जिसने एक कुढन और फ्रस्ट्रेशन को जन्म दिया। यह पाठ इस नए उभरे पढ़े-लिखे मध्यवर्मीय युवा मन की आकांशाओं के साथ पारिवारिक नींव के रूप में रक्षक पिता की भूमिका का विश्लेषण करता है। वह इसे रूढ़िगत मानसिकता और शिक्षित युवामन के संघर्ष के रूप में देखने की अपेक्षा इसे पारंपरिक व्यवहार और शहरोन्मुख तनाव के मध्य उभरे अंतर को विश्लेषित करने में देखता है। यह नया विश्लेषण इस रूप में इस कहानी का सबसे बेहतर विश्लेषण कहा जा सकता है क्योंकि यह एक पीढी को दूसरी पीढ़ी के सामने खड़ा करने की अपेक्षा पिता और पुत्र के बीच पीढिगत और व्यवहारगत विभिन्नताओं और समसामयिक स्थितियों में स्वयं को ढालने के लिये किए जाने वाले परिवर्तनों के रूप में विश्लेषित करता है। इसलिये वह इसमें संबंधों के एक नए यथार्थ का उद्घाटन देखता है और उसे अपने विश्लेषण का आधार बनाता है। संबंधों के यथार्थ की यह समझ ही नयी कहानी और साठोत्तरी कहानी के मध्य एक अंतर पैदा करती है। नयी कहानी में एक तरह का द्वंद्वात्मक व्यवहार परिलक्षित होता है। संबंधों के प्रति ईमानदारी का भाव वहाँ लगभग नगण्य है।
भीष्म साहनी की चीफ की दावत, उषा प्रियंवदा की वापसी में आपसी भावनात्मक संबंध बचा ही नहीं है। वहाँ संबंध की अपेक्षा संघर्ष प्रधान हो गया है। वहाँ नयी पीढ़ी पुरानी पीढी को छोड़कर आगे बढ़ना चाहती है। पर ज्ञानरंजन की कहानी में ऐसा नहीं है पुत्र के मन में पिता के जिद्दी स्वभाव के कारण कितनी ही खीझ क्यों न हो पर वह पिता की बेचैनी से चिंतित है। वह पिता को साथ लेकर चलना चाहता है।
पिता उमस भरी गर्मी में बाहर बेचैन हैं, जबकि घर के अन्य लोग पंखे में आराम से सो रहे हैं। पिता रात में गली मोहल्ले की चौकीदारी कर रहे हैं इस बात से वह दुखी जरूर है पर वह पिता पर गौरवांवित भी है कि पिता लगातार विजयी हैं। कठोर हैं तो क्या उन्होंने पुत्रों के सामने अपने को कभी पसारा नहीं। (पृष्ठ २०)
पिता कहानी मे पारिवारिक संबंध इसकी पूर्ववर्ती कहानियों (चीफ की दावत, वापसी आदि) सरीखे नहीं है जो इसे नयी कहानी से अलगाते हैं और यहीं पर साठोत्तरी कहानी अपनी पहचान स्थापित करती है। पिता के अपने कुछ संस्कार और परंपराएँ है उनके अपने सिद्धांत हैं जिन्हें वे बदलना नहीं चाहते। वे पुत्र द्वारा पिता के लिये बनायी गई सुविधाओं को फिजूलखर्ची मानते हैं। लेकिन क्या यह उनका दोष है हमें लगता है कि पिता का दोष इसमे उतना नहीं जितना की उस समय का है जिसमे यह कहानी लिखी गई जहाँ एक परिवार को पास में रहने के बावजूद भी साथ में न रह पाने के लिये अभिशप्त होना पड़ता है। यह कहानी की अंतर्वस्तु है। इसे पकडे बिना इस कहानी की सही व्याख्या तक पहुँचना बहुत मुश्किल है।
इस कहानी में ज्ञानरंजन ने जिस समस्या पर उंगली रखी है वह समस्या हिंदी कहानियों से लगभग नदारद है इसलिये कई आलोचक इसका जबरन साम्य कुछ कहानियों मे करते पाये जाते हैं। लेकिन उन कहानियों के संबंधों का यथार्थ और ‘पिता’ के संबंधों का यथार्थ बहुत हद तक अलग है। इस कहानी की विशेषता इसकी समकालीन संदर्भ सापेक्षता है। इसलिये यह कहानी संयुक्त परिवार के विघटन होते जाने के कारणों में नहीं जाती बल्कि विघटन होने की आशंका से त्रस्त है और इसलिये यह परिवार को संयुक्त बनाने की जद्दोजहद में लगे समाज की कहानी है। नयी कहानी में विभाजन, विश्वासघात और स्वतंत्रता से मोहभंग तथा विभाजनग्रस्तता का जो दौर बरपा था। साठोत्तरी कहानी उसे भुलाकर नये रिश्ते बनाने और उन्हें बचाये रखने में अपना महत्व समझती है।
वर्णन : शिल्प/शैली
स्वतंत्रता से पहले की कहानियाँ जिस तरह के शिल्प का प्रयोग करती थी वह शिल्प स्वतंत्रता के बाद की कहानियों का नहीं था स्वतंत्रता के बाद कहानी की शिल्पगत यात्रा के कई आयाम है एक आयाम वह है जहाँ जैनेन्द्र पाजेब की रचना करते हैं दूसरी जब अज्ञेय या इलाचंद्र जोशी रचना करते हैं तीसरी जब फणीश्वरनाथ रेणु अपनी तीसरी कसम और मैला आँचल से साहित्य में स्थापित होते है। चौथी जब नये कहानीकार निर्मल वर्मा परिंदे लेकर आते है जिसके बाद शिल्प के स्तर पर नयी कहानी में एक क्रांतिकारी बदलाव आता है। यह साठ के दशक की बाद है और इसमें कोई दो राय नहीं कि शिल्प के स्तर पर जितना परिवर्तन कहानी में निर्मल वर्मा ने किया उतना संभवत् अब तक नहीं हो सका है। निर्मल की कहानियों में शिल्प भी एक चरित्र बन कर कहानी के किरदारों के साथ संवाद स्थापित करता है। परिंदे कहानी में लतिका से कई जगह प्रकाश(रोशनी) के परोक्ष संवादों को सुना जा सकता है।
अकहानी का वैशिष्ट्य
अकहानी सिर्फ कथा के पूर्ववर्ती मापदंडो का ही निषेध नहीं करती अपितु यौन प्रतिको एवं सैक्स को केंद्र में भी रखती है। हालाँकि ज्ञानरंजन में इसका अंश अपने बाकि समकालीनों की तुलना में बहुत कम है। इसका शिल्प इन प्रतीकों को इस्तेमाल करने में हिचकता नहीं है। पत्नी के कुल्हे पर हाथ रखने पर भी उत्तेजना पैदा नहीं हुई इस तरह के वाक्य स्वतंत्रता से पहले की कहानियों में या तो आते ही नहीं थे या फिर उनकी शैली अलग होती थी। साठ के दशक के बाद उभरी कहानियों में जिन लोगों ने इस शिल्प को उसके सिर के बल खड़ा किया उनमे काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन और महेंद्र भल्ला का नाम उल्लेखनीय है। महेंद्र भल्ला की कहानी एक पति के नोट्स की ये पंक्तियाँ उस दौर को बहुत जल्दी हजम नहीं हो पायी थी कि यदि वह मेरी पत्नी ना होती तो मैं उसे चूम लेता। जैसाकि हमने कहा कि इन साठोत्तरी कहानियों में शिल्प सीधे सीधे उपस्थित न होकर कथ्य के साथ मिक्स होकर आता है। यहाँ आप शिल्प को उस तरह से नहीं देख सकते जैसे कि निर्मल वर्मा की कहानियों में आप शिल्प को पहचान लेते हैं यहाँ प्रतीक और बिंब को पहचानने के लिये उसके कथ्य की समझ हासिल करना बेहद ज़रूरी है क्योंकि यहाँ शिल्प कथ्य का जामा पहनकर आगे बढ़ता है।
प्रतीकात्मकता
कहानी में गर्मी बेचैनी के प्रतीक के रूप में उभरी है। यह कथा चरित्रों के संवादों का हिस्सा है। पिता और पुत्र के संबंध इस बेचैनी(गर्मी) को दूर करने की सुविधाओं को लेने और इंकार करने से ही बनते हैं। पुत्र इस बेचैनी को दूर करने के लिये साधन जुटाता पिता उसे अस्वीकार करता है। एक अन्य अर्थ में पिता पुत्र के परिवार के उन सारी सुविधाओं को त्याग देता है। ताकि उसका परिवार उन सुविधाओं का उपभोग कर सके।
आज बेहद गर्मी है। रास्ते-भर उसे जितने लोग मिले, उन सबने उससे गर्म और बेचैनकर देने वाले मौसमकी ही बात की।
रोमांस का संदर्भ और गैर रोमांचित शब्द संरचना
गर्मी को लेकर कहीं कहीं कथाकार ने काफी विभत्स वर्णन किया है जैसे शायद पसीने से भीगी टांग पत्नी के बदन से छू गयी थी। मुँह में बुरा सा स्वाद भर आया था आदि।बिंबात्मकता :
चारो तरफ धुमिल चाँदनी फैलने लगी है। सुबह जो दूर है, के भ्रम में पश्चिम से पूर्व की ओर कौवे काँव काँव करते उड़े।
देशज शब्दों का प्रयोग :
अकबकाकर, लपटूँ, लद्द-लद्द, पसरे, टनटना. अमावट
अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग :
वैनिटी, म्यूनिसिपल
क्या आप जानते हैं ?
- ज्ञानरंजन एक कहानीकार होने के साथ-साथ हिंदी की एक विशिष्ट पत्रिका पहल के संपादक भी हैं।
- इतने महत्वपूर्ण कथाकार होने के बावजूद भी ज्ञानरंजन ने लगभग तीन दशकों से कोई कहानी नहीं लिखी है।
- अपने शुरुआती पाठ के दौरान ज्ञानरंजन की इस कहानी को समीक्षकों ने पिता-विरोधी करार दिया था। अपनी कहानी की इस तरह की व्याख्या से ज्ञानरंजन काफी दुखी हुए थे।
- नयी कहानी के जवाब में सातवें दशक के कथाकारों ने अपनी कहानी को अकहानी कहना आरंभ कर दिया था। अकहानी दरअसल कथा के निश्चित मापदंडों का निषेध करती है।
- ज्ञानरंजन की इस कहानी में गर्मी एक प्रतीक के रूप में उभरती है। यह कथा चरित्रों के संवादों का मुख्य हिस्सा रही है। जिसे इस कहा
स्वमूल्याँकन प्रश्नमाला
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न :- पिता कहानी का मुख्य आधार बिंदु(थीम) क्या है?
- इस कहानी में उभरे पारिवारिक संबंध अपनी पूर्ववर्ती कहानियों से किस प्रकार भिन्न हैं?
- एक पाठक के रूप में पिता के चरित्र के प्रति आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
- पिता कहानी की केंद्रीय संवेदना क्या है?
- पिता कहानी किस दृष्टि-बिंदु से कही गयी है?
- पिता कहानी में पिता का चरित्र चित्रण किजिए।
- पुत्र की बेचैनी का कारण क्या था?
- घर में शॉवर लगवाने के बावजूद पिता नल पर जाकर क्यों नहाते थे?
- पिता कहानी में गर्मी का प्रतीकार्थ क्या है? स्पष्ट कीजिये।
- साठोत्तरी कहानी के संदर्भ में ज्ञानरंजन की कहानीकला का मूल्याँकन कीजिये ?
वस्तुनिष्ठ प्रश्न :
1. पुत्र ने घर में घुसते ही किस चीज़ का अंदाज़ा लेने के लिये बिजली जलाई?
क) रसोई का
ख) बिस्तर का
ग) पत्नी का
घ) पिता का
2. ज्ञानरंजन किस पत्रिका के संपादक के रूप में विख्यात हैं?
क) वागर्थ
ख) कथादेश
ग) पहल
घ) नया ज्ञानोदय
3. इनमें से कौन सातवें दशक का कथाकार नहीं है?
क) ज्ञानरंजन
ख) काशीनाथ सिंह
ग) दूधनाथ सिंह
घ) नामवर सिंह
4. सातवे दशक में लिखी गई कहानियों के लिये किस पद का इस्तेमाल किया जाता है?
क) नयी कहानी
ख) साठोत्तरी कहानी
ग) सचेतन कहानी
घ) समानांतर कहानी
5. निम्नलिखित में से कौन सी कहानी ज्ञानरंजन द्वारा लिखित नहीं हैं?
क) संबंध
ख) घंटा
ग) पिता
घ) जंगल जातकम
सहायक सूची
पुस्तकें -- अवस्थी, देवीशंकर, (2008), नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन
- ज्ञानरंजन, (2007), प्रतिनिधि कहानियाँ, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन
- यादव, राजेंद्र (1993) एक दुनियाः समानांतर, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- सिंह, विजयमोहन (2002) कथा समय, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- सिंह, विजयमोहन (1983) आज की कहानी, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- चौधरी, सुरेंद्र, (1995) हिंदी कहानीःप्रक्रिया और पाठ, दिल्ली, राधाकृष्ण प्रकाशन
- रोडरमल गार्डन, चार्ल्स(1982) हिंदी कहानीःअलगाव का दर्शन (अनु. वर्मा, अर्चना सिंह, नत्थन) दिल्ली, अक्षर प्रकाशन
- पाखी हिंदी पत्रिका (सं.) भारद्वाज, प्रेम (विशेषांक- ज्ञानरंजन) अंक सितंबर 2012
बहुत अच्छी है कहानियाँ हैं
जवाब देंहटाएंसोहन लाल
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी है कहानियाँ हैं
जवाब देंहटाएंbahot hi sundar lekha hain
जवाब देंहटाएंhttps://www.thekahaniyahindi.com/
बहुत अच्छी कहानी है
जवाब देंहटाएंI AM NOT BOY
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