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सात सामाजिक पाप ,अहिंसा का दर्शन और गांधी


सात सामाजिक पाप ,अहिंसा का दर्शन और गांधी
मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। सत्‍य के मूल्‍यों की सार्थकता और अहिंसा को महात्‍मा गांधी द्वारा दशकों पहले आरंभ किया गया और ये मान्‍यताएं आज भी सत्‍य हैं। एक अनोखी लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था वह है जहां प्रत्‍येक के लिए चिंता, प्रमुख रूप से निर्धनों, महिलाओं और वंचित वर्ग के समूहों, को आदर  पूर्वक  संबोधित किया जाए। महात्‍मा गांधी ने लोगों की स्थिति में सुधार लाने के लिए सत्‍याग्रह का उपयोग किया और वे इन क्षेत्रों में सामाजिक न्‍याय लाने के लिए निरंतर कार्य करते रहे जैसे सार्वत्रिक शिक्षा, महिलाओं के अधिकार, साम्‍प्रदायिक सौहार्द, निर्धनता का उन्‍मूलन, खादी के उपयोग को प्रोत्‍साहन आदि। 
महात्मा गांधी के विचार पद्धति का व्यापक दृष्टिकोण समाज के प्रति रहा है, इसलिए गांधी की सबसे बड़ी देन उसकी विचारधारा के अंतर्गत साध्य के साथ-साथ साधना की पवित्रता का भी ध्यान रहा है जो सर्वोदय के माध्यम से आदर्श समाज की पृष्ठभूमि को तैयार करता है। महात्मा गांधी ने आदर्श समाज की रूपरेखा को तैयार करते हुए सात सामाजिक पाप की ओर इंगित किया था क्योंकि गांधी का समाज सत्य और अहिंसा के मूल तत्व पर आधारित है इसलिए एक आदर्श समाज के लिए गांधी की दृष्टि में इन सात सामाजिक पाप से प्रत्येक समाज को दूर रहना चाहिए। गांधी के इन सात सामाजिक पापों के मुक्ति के बिना आदर्श समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। गांधी जी ने सात सामाजिक पाप बताये, जो इस प्रकार हैं :
१- सिद्धांतों के बिना राजनीति
२- कर्म के बिना धन
३- आत्मा के बिना सुख,
४- चरित्र के बिना धन
५- नैतिकता के बिना व्यापार
६- मानवीयता के बिना विज्ञान
७- त्याग के बिना पूजा
सात सामाजिक पापों को  जिन्हें कभी विश्व मानव के प्रणेता मोहनदास दास करमचंद गाँधी ने मानव जाति को याद करवाया था। ये सातों के सातों पाप गाँधीजी के सेवाग्राम में बनी उनकी कुटिया के सामने लगे एक बोर्ड पर अंकित हैं। सिद्धांत के बिना राजनीति गांधी के समाज के एक प्रमुख पापों में से एक है| राजनीति में सिद्धांत आवश्यक है अन्यथा सिद्धांत विहीन राजनीति दिशाहीन हो जाएगी,जो विभिन्न दुष्परिणामों की जननी सिद्ध होगी। राजनीति से मिली शक्ति का उद्देश्य है- जनता को हर क्षेत्र में बेहतर बनाना। राजनीति जीवन का एक अंग है जो किसी भी समाज की दशा और दिशा तय करती है इसलिए गांधी राजनीति में सिद्धांत पर ज़ोर देते है। गाँधीजी की दृष्टि में दूसरा सात सामाजिक पापों के अंतर्गत कर्म के बिना धन को माना है। गांधीजी साधना की पवित्रता पर बल देते थे उनकी दृष्टि में धनोपार्जन के लिए सर्वोत्तम साधन परिश्रम है और परिश्रम के बिना धन की प्राप्ति अनेक बुराइयों को जन्म देती है।
आत्मा के बिना सुख’, सुख के बारे में गांधी जी कहां करते थे कि मनुष्य स्वाभाविक रूप से सुखाकांक्षी होता है। आत्मा के अभाव में सभी प्रकार के सुख से भोग और वासना मात्र है आत्मा से उनका भी अभिप्राय उस आंतरिक आवाज से हैं जो सही और गलत का विवेक देती है । गांधी साधनों की पवित्रता पर बल देते है। अगर मनुष्य भौतिक और शारीरिक सुखों को महत्व देता है तो उसे विवेक रहते हुए साधनों की पवित्रता पर भी बल देना पड़ेगा अन्यथा त्याग, सेवा,परोपकार, जैसे स्तरीय गुण दुर्लभ हो जाएंगे।
चरित्र के बिना धन गांधी का चरित्र का आधार आत्म-संयम है। आत्म-संयम वही रख सकता है जो सदाचार के नियमों का पालन करता है जहाँ मनुष्य के हृदय में लोभ की प्रधानता नहीं रहेगी। वहाँ धन बिना कर्म को मंजूर नहीं होगा। गलत तरीके से कमाया हुआ धन चरित्र पर कलंक लगा देता है। सुंदर चरित्र व्यक्तित्व बिना ज्ञान भी कभी-कभी पाप की श्रेणी में आता है।
 नैतिकता के बिना व्यापार, व्यापार के लिए यह जरूरी है कि वह सदाचार पर आधारित हो अन्यथा बेईमानी आधारित व्यापार भ्रष्टाचार की श्रेणी में माना जाएगा, जो एक प्रकार का सामाजिक पाप है। गांधी ने विश्व को व्यापार करते देखा था, व्यापार में अक्सर नैतिकता कुर्बान हो जाती है।
 मानवीयता के बिना विज्ञान गांधी जी कहते हैं कि मानवता विहीन विज्ञान भी एक सामाजिक पाप है। यानी अगर विज्ञान जीवन की रक्षा की चिंता किए बिना सिर्फ विध्वंस का निर्माता है तो उससे बड़ा सामाजिक पाप क्या हो सकता है। विज्ञान आधुनिक युग की महत्वपूर्ण आवश्यकता है परंतु विज्ञान मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य विज्ञान के लिए,इस आधार पर गांधी जी कहते थे कि विज्ञान का प्रयोग इस प्रकार हो कि उससे मानवता समृद्ध और खुशहाल बने परंतु प्रयोग इस प्रकार न हो कि मानवता के लिए अभिशाप बन जाए।
 त्याग के बिना धर्म गांधी जी ने बार-बार कहा था कि मनुष्य का जन्म धर्म की साधना के लिए होता है और स्वयं अपने जीवन का उद्देश्य भी वे धर्म की उपासना मानते थे। हमारे विचार परंपरा में सेवा एवं परोपकार को मानव का महत्वपूर्ण धर्म माना है मनुष्य अपने इस धर्म का पालन तभी कर सकता है जब उसमें त्याग की भावना हो अन्यथा त्याग रहित धर्म केवल आडंबर मात्र बनकर रह जाएगा।
"मेरा उद्देश्य धार्मिक है किंतु मानवता से एकाकार हुए बिना मैं धर्म पालन नहीं देखता। अतः गांधी का त्याग भावना,मानवता केंद्रित है जो सभी धर्मों से बड़ा है”-मोहनदास करमचंद गांधी
अहिंसा का दर्शन और गांधी
अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है। जैन धर्म एवंम हिन्दू धर्म में अहिंसा का बहुत महत्त्व है। जैन धर्म के मूलमंत्र में ही अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है। आधुनिक काल में महात्मा गांधी ने भारत की आजादी के लिये जो आन्दोलन चलाया वह काफी सीमा तक अहिंसात्मक था।
गांधी की अहिंसा दर्शन का महत्व सर्वोपरि है। गांधी के अनुसार अहिंसा का स्वरूप को समझने के लिए मानसिक, व्यावहारिक तथा संगठनात्मक तीनों पक्षों को समझना होगा, क्योंकि ऐसा कोई ईश्वरीय वस्तु नहीं यह मानव व्यक्तित्व का ही एक गुण है। इसके आत्मिक तथा शारीरिक दो रूप है। जैन दार्शनिक भी अहिंसा के आंतरिक तथा मानसिक पक्ष को ही महत्वपूर्ण मानते हैं। भारतीय परंपरा में अहिंसा एक विचारधारा है, गांधी जी ने भारतीय परंपरा, भारतीय दर्शन के जितने भी प्राचीन स्रोत हैं वेद,उपनिषद,वेदनता आदि में अहिंसा का सविस्तार वर्णन पाते हैं। वैसे जैन धर्म के संस्थापक महावीर अपने पंच महाव्रत में अहिंसा को प्रमुख स्थान दिए हैं।  जो अहिंसा की अवधारणा मानव सभ्यता के विकास काल से जुड़ा है,अहिंसा का दर्शन और व्यवहार आज की चरण आवश्यकता है। अहिंसा का दर्शन भारतीय साहित्य में, भारतीय परंपरा, धर्म में  व्यापक और वैविध्यपूर्ण रूप से विस्तार है। अहिंसा के  दर्शन की  महिमा पुराण,उपनिषद से लेकर बौद्ध तथा जैन धर्म से लेकर मध्यकालीन संतों में कबीर,नानक चैतन्य,तुलसी, दादू पीपा आदि ने भी अहिंसा को धर्म का लक्षण बताया  है।
 अहिंसा भारत की सभ्यता का सार है। वह हिंदुओं का सनातन धर्म है। संस्कृति के चार अध्याय में दिनकर अहिंसा के संबंध में लिखते हैं कि" सच पूछिए तो अहिंसा  का उद्देश्य भारत में इतने दिनों से दिया जा रहा है कि शेष विश्व भारत को अहिंसा और निवृत्ति का देश मान बैठा है।"[1]दुनिया के  प्रत्येक संस्कृतियों में कुछ न कुछ खामियां दिखाई जा सकती है क्योंकि मनुष्य कहीं भी पूर्ण नहीं होता है। भारतीय दृष्टिकोण से अहिंसा के दर्शन पर  दृष्टि डालते हैं तो वैदिक धर्म दर्शन के केंद्रीय मूल्य के रूप में अहिंसा स्थापित है। ऋग्वेद,सामवेद,उपनिषद,पुराण का योगभाष्य इत्यादि ग्रंथों में न केवल अहिंसा को सर्वप्रथम रखा गया है,बल्कि अहिंसा की अभिव्यक्ति का विस्तार वर्णन किया गया है। जैन धर्म तथा बौद्ध धर्म अहिंसा निष्ठा के कारण ही विशेष ध्यानाकर्षण का अधिकारी रहा है। मध्यकालीन संतों में तुलसी कहते हैं किपरहित सरस धरम नहीं भाई। परपीड़ा सम नहिं अधमाई।”[2] किंतु इतना होते हुए भी वर्तमान जगत में अहिंसा के प्रवर्तक महात्मा गांधी माने जाते हैं क्योंकि गांधी ने अहिंसा का दर्शन को अपने अतीत से लेकर वर्तमान के सामने प्रस्तुत किया है।
गांधी ने अहिंसा के दर्शन को जिस प्रकार वर्तमान के सामने प्रस्तुत किया है इसके लिए गांधी को  संसार में जो सुयश प्राप्त है वह बुद्ध के सुयश से अधिक है, क्योंकि गांधी अहिंसा की साधना को सामूहिक कार्यों के लिए प्रयोग किया। गांधीजी ने पशु बल के समक्ष आत्म बल का शस्त्र निकाला, तोपों और मशीनगनो के सामना करने के लिए अहिंसा का आश्रय लिया। गांधीजी की अहिंसा क्रोधी या असत्य सेवी व्यक्ति की अहिंसा नहीं है और ना ही गांधी ने उपयोगिता के लोभ में आकर अहिंसा प्रयोग किया। गांधी की अहिंसा केवल हनन की विरक्ति का नाम है। गांधी जी ने कहा है "मेरी अहिंसा अत्यंत क्रियाशील शक्ति है,उसमें कायरता तो क्या दुर्बलता के लिए भी स्थान नहीं है।” [3]गांधी के अहिंसा दर्शन के अंतर्गत इन सात सामाजिक पापों को भी देखा जा सकता है। इसीलिए गांधी जी का सत्य और अहिंसा की नीति हमेशा मानव कल्याण तथा आदर्श समाज की स्थापना की ओर रहा है। गांधी के अहिंसा में कायिक और वाचिक होने के साथ बौद्धिक भी थी और इसी बौद्धिक अहिंसा ने उन्हें समझौतावादी एवं विरोधियों के प्रति श्रद्धालु बना दिया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अहिंसा प्राचीन समय से धर्म, दर्शन का प्रमुख विषय चला आ रहा है। भारत के प्रारंभ से प्राचीन ऋषि-मुनियों ने अहिंसा मार्ग को अपनाने की बात कही है। गांधी ने व्यापक स्तर पर सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भी इसका उपयोग किया है। गांधीजी की स्पष्ट मान्यता है कि जीवन के लिए कुछ न कुछ हिंसा आवश्यक है, किंतु हमें कम से कम हिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए। समाज में रहने वाला मनुष्य समाज की हिंसा  में बिना चाहे भी साथी बनना है। किंतु अहिंसा के माध्यम से वास्तविक लक्ष्य तक पहुंच जा सकता है। सिर्फ सच्चे ढंग से इस से पालन करने की आवश्यकता है। गांधी जी ने अहिंसा के इस महान व्रत का पालन सभी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक बताया है। हिंसा से प्रतिहिंसा बढ़ती है और अहिंसा से हिंसा का अंत होता है और प्रेम से द्वेष का अंत। हिंसात्मक क्रांति से शांति की संभव नहीं है,इसलिए गांधी के अहिंसा दर्शन विश्व में  सर्वोपरि है।
निष्कर्ष
महात्मा गांधी भारतीय समाज में एक विचारक ,दर्शनिक, और प्रयोगशील व्यक्तित्व के के लिए जाने जाते हैं जिसका व्यक्तित्व ही नहीं कर्म भी सत्य अहिंसा पर आधारित है। गांधी का व्यक्तित्व कर्म पर आधारित अहिंसात्मक और प्रयोगशील रहा। गांधी जी का जीवन प्रयोगशाला से होकर गुजरता है; और वह प्रयोग गांधी अपने माध्यम से भारतीय जनमानस सहित विश्व कल्याण के रूप में करते हैं जो सामाजिक ,आर्थिक ,राजनीतिक स्तर से होते हुए श्रद्धा पूर्वक काम करती है। गांधीजी का दर्शन सत्य अहिंसा और शांति का संदेश देता है। तो दूसरी ओर समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए सात सामाजिक पाप की ओर इंगित करता है। गांधीजी की दृष्टि में सात सामाजिक पाप से मनुष्य जाति को हमेशा दूर रहना चाहिए। गांधी मानवीय धरातल पर यह मानते हैं कि अगर कोई समाज पाप करेगा तो उसे समाज कहना कठिन है। गांधीजी ने अपने प्रयोग में समाज के निर्माण के मूल तत्व में कर्म,नैतिकता, चरित्र, त्याग, अहिंसा इत्यादि को स्थान दिया। जो कहीं ना कहीं सर्वोदय की परिकल्पना भी करता है। इलियट ने कहा है कि केवल अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता। वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है। गांधी जी ने अपने अतीत से, अपने प्राचीन साहित्य,धर्म और अहिंसा के दर्शन को लेकर। समाज के सामने समन्वय की विराट चेष्टा के साथ वर्तमान समाज के सामने प्रस्तुत किया है प्रस्तुत किया गया दर्शन सत्य और अहिंसा के रूप में गांधी के दर्शन है,जो मानव कल्याण के उद्देश्य की पूर्ति के साथ गांधी के उन राजनीतिक एवं सामाजिक विचारों पर आधारित है। जिन्होंने गांधी अपने जीवन में व्यवहारिक रूप में हमेशा प्रयोग किया है। गांधी अपने परंपरा और संस्कृति को साध्य करते हुए वर्तमान समाज के सामने जो आदर्श समाज की परिकल्पना किया वह शायद कोई लोकनायक ही कर सकता है । गांधी जी का कहना है,‘आपको मानवता में विश्वास नहीं खोना चाहिए। मानवता एक समुंद्र है यादि समुद्र की कुछ बूंदे सूख जाती है तो समुद्र मैला नहीं होता। इसी लिए कहा जाता है कि गांधी का संपूर्ण दर्शन ही मानवतावादका दर्शन।





[1] दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय- पृष्ट स.451
[2] तुलसीदास-रामचरितमानस
[3] दिनकर- संस्कृति के चार अध्याय- पृष्ट स.453

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